क्या होता है जलवायु परिवर्तन?
पृथ्वी का औसत तापमान अभी लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है, लेकिन भूगर्भीय प्रमाण बताते हैं कि पहले ये या तो बहुत अधिक या बहुत कम रहा है। लेकिन अब, पिछले कुछ सालों में जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है।
दरअसल मौसम की अपनी ख़ासियत होती है, लेकिन अब इस सब में बदलाव हो रहा है। गर्मियां लंबी होती जा रही हैं, और सर्दियां छोटी। और ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है। सरल शब्दों में बस यही है जलवायु परिवर्तन।
अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। जवाब भी किसी से छिपा नहीं है और अक्सर लोगों की ज़बान पर होता है ‘ग्रीन हाउस इफेक्ट’।
क्या है ये ग्रीन हाउस इफेक्ट?
पृथ्वी के चारों ओर ग्रीन हाउस गैसों की एक परत होती है। इन गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड शामिल हैं। अब ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट में होता ये है कि सूर्य की किरणें पृथ्वी के वातावरण में आकर रुक जाती हैं और इन ग्रीनहाउस गैसों में गर्मी बढ़ा देती हैं और इससे फिर ग्लोबल वार्मिंग होती है।
गैसों की ये परत सूर्य की अधिकतर ऊर्जा को सोख लेती है और फिर इसे पृथ्वी की चारों दिशाओं में पहुँचाती है। जितनी मोटी होती जाएगी ये परत उतनी गर्मी बढ़ती जाएगी। इसीलिए इन गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने की बात की जाती है।
क्या ये गर्मी ज़रूरी है?
सूरज की जो ऊर्जा पृथ्वी की सतह तक पहुँचती है, उसके कारण पृथ्वी की सतह गर्म रहती है। अगर ये सतह नहीं होती तो धरती 30 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा ठंडी होती। मतलब साफ है कि अगर ग्रीनहाउस गैसें नहीं होतीं तो पृथ्वी पर जीवन नहीं होता। लेकिन अधिकता किसी भी चीज़ की बुरी है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि हम लोग उद्योगों और कृषि के जरिए जो गैसें वातावरण में छोड़ रहे हैं (जिसे वैज्ञानिक भाषा में उत्सर्जन कहते हैं), उससे ग्रीन हाउस गैसों की परत मोटी होती जा रही है। ये परत अधिक ऊर्जा सोख रही है और धरती का तापमान बढ़ा रही है. इसे आमतौर पर ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कहा जाता है।
किस गैस से है सबसे ज़्यादा ख़तरा?
इनमें सबसे ख़तरनाक है कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का बढ़ना। कार्बन डाइऑक्साइड तब बनती है जब हम ईंधन जलाते हैं. मसलन- कोयला। जंगलों की कटाई ने भी इस समस्या को और बढ़ाया है। जो कार्बन डाइऑक्साइड पेड़-पौधे सोखते थे, वो भी वातावरण में घुल रही है। मानवीय गतिविधियों से दूसरी ग्रीनहाउस गैसों मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी बढ़ा है, लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में इनकी मात्रा बहुत कम है।
आपके लिए जानना ज़रूरी है कि 1750 में औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 30 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। मीथेन का स्तर 140 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर आठ लाख वर्षों के सर्वोच्च स्तर पर है।
लेकिन तापमान बढ़ने के सबूत क्या हैं?
उन्नीसवीं सदी के तापमान के आंकड़ों पर एक नज़र डाली जाए तो साफ़ समझ आ जायेगा कि पिछले 100 सालों में पृथ्वी का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ा। इस तापमान का 0.6 डिग्री सेल्सियस तो पिछले तीन दशकों में ही बढ़ा है।
उपग्रह से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में समुद्र के जल स्तर में सालाना 3 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हुई है। सालाना 4 प्रतिशत की रफ़्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
भविष्य में कितना बढ़ेगा तापमान?
2013 में जलवायु परिवर्तन पर एक अंतरराष्ट्रीय समिति ने कंप्यूटर मॉडलिंग के आधार पर संभावित हालात का पूर्वानुमान लगाया था। उनमें से एक अनुमान सबसे अहम था कि वर्ष 1850 की तुलना में 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा।
यहाँ तक कि अगर हम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अभी भारी कटौती कर भी लें तब भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दिखते रहेंगे, खासकर हिमखंडों और ग्लेशियर्स पर।
जलवायु परिवर्तन का हम पर क्या असर होगा?
असल में कितना असर होगा इस बारे में सीधे तौर पर कुछ कहना तो मुश्किल है। लेकिन हम देख ही रहे हैं कि पीने के पानी की कमी बढ़ रही है, खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी हो रही है, बाढ़, तूफ़ान, सूखा और गर्म हवाएं चलने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। और ये सब वक़्त के साथ बद से बदतर होता जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा असर ग़रीब मुल्कों पर पड़ रहा है क्योंकि उनके पास पहले से ही बुनियादी संसाधन नहीं है और अगर ऐसे में उन्हें प्राक्रतिक आपदाओं का सामना करना पड़े तो मुसीबत बढ़ेगी ही उनकी। इंसानों और जीव जंतुओं कि ज़िंदगी पर सीधा असर पड़ रहा है जलवायु परिवर्तन से। ख़ास तरह के मौसम में रहने वाले पेड़ और जीव-जंतुओं के विलुप्त होने का ख़तरा बढ़ जाएगा।