प्रधान मंत्री मोदी ने COP 26 में दुनिया को बता दिया कि भारत साल 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म बिजली क्षमता को 500 गीगावाट (GW) तक पहुंचाएगा और इस लक्ष्य का आधा रिन्यूबल ऊर्जा से हासिल किया जाएगा। साथ ही, उत्सर्जन में एक बिलियन टन की कमी और 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता में 45% की कमी कि भी घोषणा मोदी जी ने की है।
इस घोषणा के सापेक्ष, ग्लोबल विंड एनेर्जी काउंसिल ने ‘एक्सीलरेटिंग ऑन शोर विंड कैपेसिटी एडिशन इन इंडिया टू अचीव 2030 टारगेट’ (वर्ष 2030 का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत में तटवर्ती वायु ऊर्जा उत्पादन क्षमता की अभिवृद्धि में तेजी लाना) शीर्षक वाला अपना दस्तावेज जारी किया है। इसमें वायु ऊर्जा क्षेत्र के लिए भारत की ई-रिवर्स नीलामी व्यवस्था पर रोशनी डाली गई है।
दरअसल अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों में क्लीन एनेर्जी ट्रांज़िशन, ऊर्जा सुरक्षा तथा जलवायु संरक्षण संबंधी कार्रवाई में वायु ऊर्जा की उत्प्रेरक भूमिका के बारे में विस्तार से बात की गई है।
अच्छी बात ये है कि भारत में पवन ऊर्जा उत्पादन की काफी संभावनाएं हैं। एनआईडब्ल्यूई के अनुमान के मुताबिक भारत में 120 मीटर हब ऊंचाई पर लगभग 695 गीगावाट की तटवर्ती वायु ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। भारत लगभग 41 गीगावॉट स्थापित तटवर्ती वायु ऊर्जा क्षमता के साथ दुनिया में चौथे स्थान पर है।
इतना ही नहीं, भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने लगभग 41 गीगावॉट वायु ऊर्जा और 49.3 गीगा वाट सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता के साथ अप्रैल और दिसंबर 2021 (सीईए 2022) के बीच 58.13 हजार मेगा यूनिट (वायु ऊर्जा), और 51.2 5000 मेगा यूनिट (सौर ऊर्जा) उत्पादन की जानकारी दी है।
भारत सरकार के अनुमान के मुताबिक प्रति मेगावाट स्थापित वायु ऊर्जा के हिसाब से हर वर्ष 2.2 मेगा यूनिट बिजली उत्पन्न होती है। वहीं, सौर ऊर्जा के मामले में प्रति मेगावाट 2 मेगा यूनिट बिजली पैदा होती है (एमएनआरई 2021)।
पवन ऊर्जा क्षेत्र का रोजगार सृजन में भी एहम योगदान है। आईआरईएनए और आईएलओ के मुताबिक भारत में वायु ऊर्जा उद्योग से कम से कम 50000 लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है। वहीं, दुनिया भर में वायु टरबाइन उपकरणों (नैसेल, ब्लेड, टावर, जेनरेटर, गियरबॉक्स और बेयरिंग) का उत्पादन करने वाले लगभग 10% कारखाने भारत में स्थित हैं।
आगे, जीडब्ल्यूईसी के वर्ष 2022 के प्रारंभिक अनुमानों के मुताबिक किसी एक परियोजना की 25 वर्ष की संचालन जीवन अवधि के दौरान भारत में स्थापित वायु ऊर्जा क्षमता के प्रति मेगावाट औसतन 33.7 एफटीई नौकरियां (एक कैलेंडर वर्ष में एक व्यक्ति के लिए पूर्णकालिक नौकरी के रूप में परिभाषित) उत्पन्न होती हैं।
आने वाले वक़्त में इस दिशा में क्या संभावनाएं हो सकती हैं, इस पर प्रकाश डालते हुए जीडब्ल्यूईसी के वर्ष 2022 के शुरुआती अनुमानों के मुताबिक सामान्य परिदृश्य के तहत वर्ष 2022-2026 के बीच 19.4 गीगा वाट तटवर्ती वायु ऊर्जा उत्पादन क्षमता स्थापित होगी, जिससे वायु ऊर्जा फार्म की 25 वर्ष की संचालन अवधि के दौरान राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में करीब 10 अरब डॉलर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सकल मूल्य वृद्धि जुड़ेगी।
वायु टरबाइन क्षमता में भी कई गुना इजाफा हुआ है। 1990 के दशक की शुरुआत में किलोवाट आकार वाली टरबाइन अब 3 मेगावाट से अधिक क्षमता वाली अत्याधुनिक और अत्यधिक दक्ष रूप में भारत के व्यावसायिक बाजार में उपलब्ध हैं।
भारत में फीड इन टैरिफ (एफआईटी) व्यवस्था से आगे बढ़ते हुए ई-रिवर्स नीलामी प्रणाली को अपना लिया गया है जिससे किफायत बढ़ी है। हालांकि यह बदलाव प्रभावशीलता या वार्षिक क्षमता वृद्धि के मामले में कोई खास बदलाव लाने में नाकाम रहा है।
गुजरे वक्त में अपेक्षित वायुदाब वाले राज्यों में अक्षय ऊर्जा रहित बिजली के लिए पवन ऊर्जा की दर एपीपीसी से कम देखी गई है, लिहाजा ऐसे राज्यों के पास वायु ऊर्जा की खरीद को प्राथमिकता देने के लिए एक मजबूत व्यावसायिक वजह मौजूद है।
क्योंकि उत्पादित ऊर्जा मिश्रण में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ रही है, ऐसे में वायु ऊर्जा उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना ग्रिड के दीर्घकालिक स्थायित्व को सुनिश्चित करने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में डीकार्बोनाइजेशन को बढ़ावा देने के लिए चौबीसों घंटे भरोसेमंद अक्षय ऊर्जा की आपूर्ति करने में सक्षम होना भी अहम है। ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन के लिए बिजली आपूर्ति को पूरा करने के उद्देश्य से देश में तेजी से अक्षय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि करने की जरूरत है।
वायु ऊर्जा संसाधनों की पूरी क्षमता का फायदा उठाने और वर्ष 2030 तक भारत में लगभग 100 गीगावॉट नई वायु ऊर्जा क्षमता जोड़ने के लिए मौजूदा व्यवस्था में फौरन आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। दुनिया के चौथे सबसे बड़े तटवर्ती वायु ऊर्जा बाजार यानी भारत को अपने मौजूदा तटवर्ती वायु ऊर्जा रिवर्स नीलामी तंत्र पर फिर से विचार करना चाहिए क्योंकि यह वर्ष 2030 के लक्ष्य की समय पर प्राप्ति के लिए जरूरी रफ्तार देता नहीं दिख रहा है। इसके अलावा विरासत में मिली परिचालन संबंधी चुनौतियों का समाधान किया जाना चाहिए और अप्रत्याशित घटनाओं से पैदा होने वाले उन झटकों से निपटने के लिए पर्याप्त समर्थन तंत्र का पता लगाया जाना चाहिए जिनसे स्पष्ट रूप से क्षमताओं में रुकावटें पैदा हुई हैं।
इस दस्तावेज में व्यापक उद्योग परामर्श के आधार पर कई संस्थागत, वित्तीय और परिचालन संबंधी उपाय सुझाए गए हैं। इनमें प्राकृतिक आपदाओं, युद्धों तथा अन्य ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं में परियोजना के विकासकर्ताओं की रक्षा के लिए एक मजबूत सूचकांक बनाने वाला तंत्र शुरू करने की संभावना भी शामिल है, जिनसे पहले से ही निर्माणाधीन परियोजनाओं की वित्तीय व्यवहार्यता में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
\यह दस्तावेज उपयोगिता के स्तर पर परियोजना की निगरानी कार्य योजना को मजबूत करने का सुझाव देता है साथ ही साथ यह एक &कोट और उपयोगिता पैमाने पर अक्षय ऊर्जा क्षमता सूचकांक &कोट को भी लाने का सुझाव देता है ताकि राज्य स्तरीय श्रेष्ठ पद्धतियों की पहचान हो सके और ऐसे राज्यों को जरूरी हैंड होल्डिंग उपलब्ध कराने में सक्षम बनाया जा सके जहां उपयोगिता स्तरीय परियोजनाएं रफ्तार हासिल करने में नाकाम हो रही हैं।
इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जीडब्ल्यूईसी के सीईओ बेन बैकवेल कहते हैं, “भारत का वायु ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र कई पुरानी चुनौतियों की श्रंखला से जूझ रहा है, जिनकी वजह से वार्षिक क्षमता वृद्धि की रफ्तार में काफी गिरावट आई है। इस बीच रिवर्स नीलामी व्यवस्था ने ‘रेस टू द बॉटम’ विशेषताओं वाले एक ऐसे बाजार को बढ़ावा दिया है जिसमें अपर्याप्त मात्रा वाली स्थिर बोलियों और उच्च स्तर की नाकामी और परियोजना की गुणवत्ता तथा आपूर्ति श्रंखला की स्थिति पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा हाल के महीनों में कई सुधारात्मक नीतिगत क़दमों की घोषणा किए जाने से नई आशा जगी है। मगर वायु ऊर्जा निर्माण क्षेत्र में निवेश में तेजी लाने और सालाना ऊर्जा क्षमता में वृद्धि को और तेज करने के लिए निरंतर मांग उत्पन्न करने की जरूरत है। वायु ऊर्जा उद्योग के लिए यह जरूरी है कि वह भारतीय बाजार में विस्तार के आधार पर एक स्पष्ट विनिर्माण निवेश की स्थितियां बनाएं। साथ ही साथ सरकारी एजेंसियों, समुदायों तथा वाणिज्यिक और औद्योगिक उपभोक्ताओं के साथ अपनी भागीदारी तैयार करें और उन्हें बढ़ाएं ताकि लक्ष्य को हासिल किया जा सके। इसके अलावा परियोजना के ऐसे विकासकर्ताओं और निर्माणकर्ताओं की वित्तीय मजबूती को सुनिश्चित करने के लिए कदम भी उठाएं जो वार्षिक लक्ष्य के सापेक्ष ऊर्जा क्षमता में वृद्धि के ठहर जाने और संपूर्ण मूल्य संख्या में कीमतों के बढ़ने जैसी दोहरी मार सहन करने को मजबूर हैं। ऐसा करना यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि वायु ऊर्जा उद्योग भारत को उसके सतत विकास और उन्नति के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने में अपनी सहयोगात्मक भूमिका निभा सके।”
आगे, जीडब्ल्यूईसी इंडिया के अध्यक्ष और रिन्यू पावर के संस्थापक अध्यक्ष तथा सीईओ सुमंत सिन्हा कहते हैं, “भारत वैश्विक ऊर्जा रूपांतरण के मामले में एक अग्रणी देश है और उसने यह यह स्थान सभी हित धारकों के बीच अभूतपूर्व तालमेल की वजह से हासिल किया है। खास तौर पर वायु ऊर्जा उत्पादन क्षमता में वृद्धि के माध्यम से। ऐसे में जब भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अपनी लड़ाई को तेज कर रहा है और एक अनिश्चित व्यापक अर्थव्यवस्था वाले माहौल के बीच वर्ष 2030 और 2070 के लिए निर्धारित अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में काम कर रहा है, वायु ऊर्जा क्षेत्र एक महत्वपूर्ण सक्षमकारी कारक बना हुआ है। इन प्रयासों को कारपोरेट अंतर्राष्ट्रीय इकाइयों, नीति निर्धारकों, कर्ज दाताओं, निवेशकों, एनजीओ, शिक्षण संस्थानों, शोध प्रयोगशालाओं तथा नवोन्मेषकर्ताओं के साथ-साथ प्रभावित समुदायों के बीच और अधिक तथा बेहतर तालमेल स्थापित करने की जरूरत होगी। भारत के ऐतिहासिक ऊर्जा रूपांतरण को कामयाब बनाने के लिए हर किसी को बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी और कामयाबी को ही एकमात्र नतीजा बनाना होगा। क्योंकि अगर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारी लड़ाई अधकचरा नतीजा लेकर आई तो यह विनाशकारी साबित हो सकता है।”