निशान्त
बाज़ार और बाज़ारवाद!
अमूमन लोग इन दोनों शब्दों को एक सा मान लेते हैं और इनके बीच के फ़र्क़ को मामूली मानते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे हिन्दू होना और हिंदुत्व की बात करना, एक माना जाता है। बाहरहाल, हिन्दू और हिंदुत्व के फ़र्क़ पर चर्चा फिर कभी।
अब वापस आते हैं बाज़ार और बाज़ारवाद के फ़र्क़ पर। जी हाँ, दोनों में फ़र्क़ है,और फ़र्क़ भी काफ़ी।
इसलिए दोनों का फर्क समझना बहुत ज़रूरी है।
जहां एक ओर बाज़ार हमारे समाज की ज़रूरत है, तो बाज़ारवाद हमारी चाहत है। बाज़ार ज़रूरी है क्योंकि वहाँ से हम ज़रूरत का सामान खरीदतें और बेचते हैं।
वहीं बाज़ारवाद में सामान पहले बनाया जाता है, और ज़रूरतें फिर पैदा की जाती हैं।
इसे ऐसे समझिए कि जब आपकी ज़रूरत साफ़ पीने योग्य पानी है, तो बाज़ारवाद आपको बिसलेरी का पानी पीने को बाध्य करेगा। समझाया जाएगा ‘ये प्योर है, सबसे अच्छा है, सबसे साफ़ है’। ऐसे ही, जब आपकी ज़रूरत तेल, साबुन, मंजन है, तब बाज़ारवाद आपको समझायेगा कि फ़लाना ब्रांड का तेल, साबुन, मंजन लेना चाहिए क्योंकि ‘वो सबसे अच्छा है, बेहतरीन क्वालिटी का है’।
बाज़ारवाद के आगे आप और हम हारते इसलिए हैं क्योंकि हम अपनी ईगो या अहंकार के ग़ुलाम बने रहते हैं। ऐसा करना सुगम होता है क्योंकि ईगो के बहाव के साथ बहना आसान है। समाज व्यक्तियों से बनता है और जब ज़्यादातर लोग उसी बहाव में बहते दिखते हैं तो समाज भी उसी बहाव में बहता दिखता है। और जैसे ही समाज बहता दिखता है बाज़ारवाद की लहर में, हम अपने बहने को सही मान लेते हैं।
लेकिन ध्यान रहे, बहाव के साथ मुर्दा लाशें ही बहती हैं और इसी चाल को भेड़ चाल कहते हैं।
बहाव के ख़िलाफ़ तैरने के लिए हुनर और हिम्मत चाहिए। नौसेना में तो बाक़ायदा इसकी ट्रेनिंग होती है, वो भी समुद्र में।
ख़ैर, बात वापस अपने मुद्दे की। चर्चा ईगो पर पहुंची थी। तो फ़िलहाल बाज़ारवाद आपकी-हमारी ईगो का मसाज ऐसे कर रहा है कि हमें-आपको ‘कंज़्यूमर इज़ किंग’ कर राजा घोषित कर रहा है। एक आभासी दुनिया में राजा बना रहा है।
अब आपको राजा घोषित कर दिया गया तो आपको राजा की परिभाषा पर पूरा भी उतरना पड़ेगा। मतलब राजसी तरीके से रहना और खर्चा करना। खर्च करने के लिए बाज़ारवाद ने आपके लिए सामान पहले ही बना कर रख लिए हैं, मसलन ‘सबसे अच्छा तेल, मंजन, शैम्पू’।
तो अब आप राजा बनने के एहसास में राजसी खर्च करने लगे। भले ही आपको ज़रूरत न हो, आपने नयी ज़रूरतें बना लीं। मसलन कोई ख़ास क्रीम या कोई स्पेशल फ़ूड। और उन ज़रूरतों को पूरा करने और राजा सा दिखने के चक्कर में आपने अपने आर्थिक संसाधनों का दोहन शुरू कर दिया। और अब आपके इस किंग होने के एहसास के चलते, आपके परिवार की आदतें भी वैसी बनने लगीं। अब आपके बच्चे भी प्रिंस और प्रिंसेज़ बन गए। और आप लगे पड़े हैं राजा से दिखने, और अपने 3 BHK साम्राज्य को और वैभवशाली बनाने में।
अब राजा साहब और रानी साहिबा सुबह से शाम या रात तक दफ़्तरों में काम करते हैं चुपचाप क्योंकि अब वो राजा सा दिखने के लिए दफ़्तर के ग़ुलाम बन चुके हैं। नौकरी नहीं तो राजसी शौक़ और जीवनशैली कैसे मैनिज करेंगे? और राजा भी अब अमूमन वीकेंड पर ही बन पाते हैं, या बहुत हुआ तो दफ़्तर के बाद कभी-कभी शामों को जब ईगो मसाज के लिए राजा साहब, क्वीन और प्रिंस और प्रिंसेज़ के साथ किसी रेस्टोरेंट में राजसी खाने के अनुभव के लिए जाते हैं।
इस सब के बीच वो बाज़ारवाद का चेहरा खी-खी कर छिप कर हंस रहा होता है। बिल्कुल वैसे ही, जैसे आप हैरत से हंसेंगे अगर आप सड़क पर किसी परिवार को राजसी वेशभूषा में टहलता और नॉर्मल सा बिहेव करता देखेंगे। आपको पता है वो राजा नहीं, न किसी फ़िल्म की शूटिंग चल रही है, और न कोई फैंसी ड्रेस शो। आपके मूँह से शायद निकले ‘ये पगला गए हैं क्या?’
बस ठीक ऐसा ही बाज़ारवाद को बढ़ाती ब्रांड्स को लगता है। वो हँसते हैं आप पर मन ही मन क्योंकि आप उसी फ़र्ज़ी राज परिवार से हैं जैसा सड़क पर आपने घूमता देखा। वो हँसते हैं आपको देख कर क्योंकि आप उनके जाल में फंस उनकी जेब गरम कर रहे हैं। और वो ब्रांड्स आपके सामने अब और ज़्यादा जोश और संजीदगी से बताते हैं कि आप जो कर रहे हैं वो सही है क्योंकि आपके ‘परिवार की सेहत और सुरक्षा और ख़ुशी’ के लिए वो सब ज़रूरी है। और आप फिर इमोशनल गेम में उनके फंस गए।
खैर, अब राजा साहब ने इतना प्रचार कर दिया अपने राजा होने का कि वो अगर अपने नॉर्मल रूप में घूमेंगे को उन्हें अजीब लगेगा और शायद शर्मिंदा महसूस करेंगे। इसलिए अब राजा साहब ओढ़े रहते हैं वही घिसा हुआ राजसी चोला जिसके पीछे से झाँकती है असलियत।
वैसे न जाने क्यों राजा साहब का सुनते ही शादियों में गेट पर खड़े उन चमकीले कपड़ों और नकली मूंछों और भाले लिए राजसी सुरक्षा कर्मी याद आ गए। जिन्हें मेज़बान ने शायद किसी राजसी आभास के लिए खड़ा किया था लेकिन असलियत आपको पता होती है। अंदर न राजा होता है न रानी, और प्लेट पर मिलती है वही पुड़ी-पनीर और ग्लास में होता है वही पानी। सब सोच कर हंसी आ रही है।
ख़ैर, अब कंज़्यूमर किंग तो बना दिया गया है, लेकिन इस किंग के पास ख़ज़ाना तो कोई है नहीं। महीने के अंत में मिलना वही बंधी तनख़्वाह है। अब अगर नार्मल बाज़ार से ख़रीदारी करते तो ज़ाहिर है ज़्यादा तनख़्वाह बचती, ज़्यादा तसल्ली रहती, और टेंशन कम रहते क्योंकि जेब में बच रहा है ज़्यादा कैश।
लेकिन बाज़ारवाद के किंग को तो ‘सबसे अच्छी और बढ़िया क्वालिटी’ का सामान चाहिए, क्योंकि ‘आजकल के स्ट्रेसफुल समय में क्वालिटी से कोम्प्रोमाईज़ नहीं कर सकते’। और आख़िर महंगा है तो बेहतर ही होगा। है न? और इस सब में राजा साहब जेब ढीली करते रहते हैं। और अब तो सोशल मीडिया के दौर में राजसी लाइफ दिखाना भी आसान हो गया है। इसलिए सब दिखाते भी है और एक दूसरे पर बेहतर दिखावे का दबाव बनाते भी है।
तो पहले जहाँ छुट्टी मनाई जाती थी, वहाँ अब हॉलिडे होते हैं। जब किसी नए शहर में रुकने के लिए ज़रूरत एक साफ सुथरे और सेफ़ कमरे की है, तो बाज़ारवाद की चाहत है कोई फैन्सी होटल का कमरा। और यहाँ राजा साहब ये भूल जाते हैं कि उस शहर घूमने आए हैं, न कि उस कमरे में रहने। कमरे में बस रात बितानी है, दिन भर घूमना है, ट्रैवल करना है।
लेकिन नहीं, राजा साहब तो ट्रैवलर नहीं, टूरिस्ट हैं, मतलब पर्यटक।
अब इस सब के लिए पैसा तो चाहिए ही। तनख़्वाह से ही होगा सब। नहीं होगा तो कुछ साइड के काम या ऊपरी कमाई शुरू हो जाती है। ज़्यादा काम मतलब ज़्यादा समय मतलब परिवार के लिए कम समय मतलब अपने लिए भी कम समय। काम के साथ कुछ ज़्यादा हुआ तो वो है टेंशन। और टेंशन मतलब बीमारियाँ, और इसके वैज्ञानिक प्रमाण हैं।
अब राजा साहब और रानी साहिबा को कोई समझाए कि वो स्ट्रेस आया कहाँ से जिसका मुक़ाबला करने के लिए वो ‘सबसे बढ़िया क्वालिटी का सामान’ खरीद रहे हैं।
ख़ैर, अब बात कुछ संजीदगी से। ऐसा नहीं कि आप बाज़ारवाद से बचने के लिए वैराग्य ले लें। बस आपको करना इतना ही है कि आपको ईगो के ग़ुलाम बनने से बचना है। असलियत समझनी है कि आप किसी कॉमर्शियल ऊर्जा से बनी विचारधारा के कहने से किंग नहीं बनते। कंज़्यूमर इज़ किंग एक बड़ा धोखा है।
अगर आपको राजा बनना है और वैसा ही सुख अपने जीवन में चाहिए, तो सबसे पहले अपनी नैसर्गिक ज़रूरतों पर ही फोकस करिये। चाहतों के ग़ुलाम होने से बचिए। जितनी ज़रूरतें कम होंगी, उतनी ही तसल्ली मिलेगी।
ऐसा करने से आप अपने पास ज़्यादा आर्थिक संसाधन जुटा पाएंगे। ज़रूरत पड़ने पर बाज़ार से खरीदने में आपको कष्ट नहीं होगा।
जब आमदनी 100 की हो और ज़रूरतें 30 में निपट जाएं तो ज़ाहिर है जेब में 70 के साथ आप किसी राजा से कम नहीं।
वहीं बाज़ारवाद आपको नई ज़रूरतें बनवाता है। जो काम 30 में होना था, वो अब 70 में हो रहा है और जेब में 30 बच रहा है।
चलिये तीस न सही, आप चालीस बचा ले रहे हैं, लेकिन फिर भी आप राजा वाली तसल्ली नहीं हासिल कर सकते। और ये जो तसल्ली है न, ये किसी बाज़ार में नहीं बिकती।
जिस फाइनैंशियल फ्रीडम की सब बात करते हैं वो आपको नहीं मिल सकती अगर आप बाज़ारवाद का हिस्सा हैं। क्योंकि फ्रीडम मिलते ही आप फिर ग़ुलाम बनेंगे। आप अपनी इनकम बढ़ाएंगे तो आप अपने खर्चे भी बढ़ा लेंगे। और ये सायकिल चलती रहेगी। इसलिए इससे बाहर निकलने के लिए बहुत ज़रूरी है बाज़ारवाद से निजात पाना।
अब जहाँ इतनी बात ईगो की हुई है, तो थोड़ी बात ईको की भी हो जाये। ईको से मतलब इकोलॉजी या परिस्थितिकी। मतलब जीव जन्तुओं का एक दूसरे और अपने पर्यावरण से नाता।
अच्छा इस बात में तो कोई दो राय नहीं कि हम सब ही जानते हैं हमें प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। लेकिन क्या हमारी जीवनशैली प्रकृति के क़रीब है? क्या आप अपने उस ‘सबसे बढ़िया क्वालिटी’ के टूथपेस्ट के आगे नीम के दातुन का प्रयोग करने की सोच भी सकते हैं? आपको असम्भव लग रहा होगा। आपको लग रहा होगा, ‘अब तो गांव वाले भी न करते होंगे दातुन और ये हमें बता रहे हैं…’
सही सोचा आपने। दुःख की बात यही है कि अब शायद गांव में भी ब्रश और मंजन पहुंच चुका है। इसीलिए गांव भी अब शहर से हो रहे हैं। प्रकृति के क़रीब जो थे, वो गांव वाले भी अब प्रकृति से दूर हो रहे हैं। वजह है यही बाज़ारवाद, जिसने सबकी ज़रूरतें बढ़ा दीं, बदल दीं। कल तक जो नीम का पेड़ काम का था, वो अब बस लकड़ी बन कर रह गया है जिसे काटा जा सकता है। अब दातुन कोई करता नहीं, नीम के पत्तों से स्किन केयर करता नहीं, नीम के पानी से ख़ून साफ करता नहीं, तो भला कोई क्यों उस पेड़ को लगाएगा। अब तो ‘बढ़िया वाला’ टूथपेस्ट और स्किन क्रीम आती हैं। और मज़े की बात ये, अब यही बाज़ार, जो नेचर को बर्बाद कर आपके लिए नए प्रोडक्ट्स ला रहा है, वो आपको वही प्रोडक्ट्स, ‘नैचुरल, हर्बल, और आर्गेनिक’ नाम से बेच रहा है।
बात की गहराई आप तब समझेंगे जब आप कार्बन फुटप्रिंट के बारे में जानेंगे। मैं उसके बारे में फ़िलहाल नहीं बताऊंगा। मैं चाहता हूँ आप स्वयं पता करें। गूगल पर देखिए। तब आप समझेंगे कि आप ईगो से मोहब्बत के चलते ईको से अदावत कर रहे हैं।
आपकी ईगो आपको एक फ़र्ज़ी राजा बना रही है और आपको जिस ईको को अपना राजा, अपना आदरणीय मानना चाहिए, उसे आप ‘हर्बल, ऑर्गनिक, नैचुरल’ मान पैकिटों और डब्बों में खरीदने वाली चीज़ समझ रहे हैं।
बाज़ारवाद के तेल से मालिश के बाद आपकी ईगो आपको सबसे ऊपर रहने को मजबूर करती है। वहीं ईको की नर्मी और ठंडक आपको सबके साथ, सबके बीच में रहने की समझ देती है।
यहाँ आप ये भी सोच सकते हैं कि अगर बाज़ार नहीं होगा तो अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी। लेकिन फिर याद दिलाना चाहेंगे आपको कि बाज़ार ज़रूरी है, बाज़ारवाद नहीं। अगर आप अपनी ज़रूरतों पर लग़ाम लगा लें तो कोई ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था नहीं चाहिए होगी और न ही पेरिस समझौते जैसी बातें प्रचलन में रहेगीं। और हमारी पृथ्वी बेहतर से बेहतरीन हो जाएगी।
ख़ैर, ये बातें देर तक चलेंगी इसलिए इन्हें यहीं विराम लगाना चाहिए। लेकिन चलते-चलते आपको बताते चलें कि दुनिया की बीस फ़ीसद जनता के उपभोग, या कंज़म्पशन, के लिए पृथ्वी के अस्सी फ़ीसद संसाधन प्रयोग हो रहे हैं।
सोचिये क्या बचेगा हमारे बच्चों के लिए। कैसा भविष्य हम बना रहे हैं उनके लिए। और याद रखियेगा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि आप कंज़्यूमर हैं, और कंज़्यूमर आख़िर किंग है।
Very well deciphered, it’s high time that we should understand the strategy behind this “brandism”, what I call it.
Thanks
Sateek.
बहुत शुक्रिया आपका।
Nice write up Nishant… as it is I have always said, you are such a good writer…
Thank you so much. Glad you Liked it