– श्रद्धा श्रीवास्तव
मालवा की तीव्र गर्मी और झुलसाने वाली धूप हर भोपाली के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। ऐसी गर्मी, जिसमें सूरज मानो आग बरसाता है और लू अच्छे-अच्छों को बीमार कर देती है। इन विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए आजकल एसी, फ्रिज और कूलर जैसे आधुनिक उपकरणों का उपयोग आम हो गया है। लेकिन इन मशीनों की गूंज के बीच, एक आवाज़ उन प्राचीन नुस्खों की भी है, जो सदियों से राहत देने में कारगर साबित हुए हैं। ये हमारे दादी-नानी के अनुभव, सहज ज्ञान और पर्यावरण की गहरी समझ से उपजे उपाय आज भी उतने ही प्रभावी और असरदार हैं।
इन नुस्खों से मेरी पहचान पिछली गर्मियों में ही हुई। कफ प्रकृति की होने के कारण, मुझे जल्दी ही ज़ुकाम हो जाता है। एक गिलास ठंडा पानी पीते ही मेरी नाक बंद हो जाती और छींकें रुकने का नाम नहीं लेतीं—इसी वजह से मैं गर्मियों में भी ठंडा पानी नहीं पीती थी। फिर एक गर्म दोपहर ने मेरे संयम को गहरा आघात पहुँचाया। मई का महीना था, 43 डिग्री तापमान और प्यास से सूखा गला—मैंने एक साँस में ठंडा पानी गटक लिया। और वही हुआ जिसका अंदेशा था—छींकों की झड़ी और आंखें लाल।
मेरी स्थिति देखकर घर में मदद करने वाली मेरी प्यारी आरती काकी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“गुड़िया, तुम मटके का पानी पिया करो।”
इस साधारण-सी सलाह ने मेरी ज़िंदगी बदल दी। तब से एक मटका मेरी रसोई का आवश्यक सदस्य बन गया है। अब चाहे जितने भी गिलास ठंडा पानी पी लूं, मुझे ज़ुकाम नहीं होता। उस दिन मैंने जाना कि ज़िंदगी के सबसे असरदार समाधान अक्सर सबसे साधारण चीज़ों में ही छिपे होते हैं।
मेरी जिज्ञासा तब और बढ़ गई जब मैंने इस अनुभव का ज़िक्र अपनी सहपाठी शैय्या से किया। मेरी बात सुनते ही शैय्या ने भी अपने घर से जुड़ा एक किस्सा साझा किया। उसने बताया,
“मेरी दादी आज भी पीतल के बर्तन में पानी पीती हैं और घर के बरामदे में खस के भीगे परदे लगवाती हैं। उनका मानना है कि ये देसी तरकीबें गर्मी में राहत देने में बेहद उपयोगी होती हैं। शायद यह महसूस भी होता है, खासकर तब जब बिजली चली जाती है,” शैय्या ने हँसते हुए कहा।
मगर क्या ये परंपराएँ हम सिर्फ इसलिए आज भी अपना रहे हैं क्योंकि ये हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं?
दरअसल, इन तरकीबों के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी हैं। मटका ‘वाष्पीकरण शीतलन’ (Evaporative Cooling) के सिद्धांत पर काम करता है—मिट्टी की सतह पर पानी धीरे-धीरे वाष्पित होता है और इस प्रक्रिया में आसपास की गर्मी को सोख लेता है, जिससे पानी स्वाभाविक रूप से ठंडा हो जाता है। खस के परदे भी इसी विज्ञान पर आधारित हैं—जैसे ही गर्म हवा इन गीले पर्दों से होकर गुज़रती है, वह ठंडी हो जाती है और कमरे में ठंडक भर देती है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार,
“स्थायित्व लंबे समय से भारतीय जीवनशैली का हिस्सा रहा है, और यहाँ की पारंपरिक समझ व टिकाऊ उपायों ने लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक उपभोग की राह दिखाई है।”
यह ज्ञान हमारे खान-पान में भी झलकता है। मोहल्ले में टिफ़िन सेवा चलाने वाली संगीता खरे बताती हैं,
“मैं आज भी सत्तू शरबत, आम पना और छाछ जैसी पारंपरिक पेयों का उपयोग करती हूँ। न सिर्फ मैं इन्हें अपने परिवार के लिए बनाती हूँ, बल्कि अपने संडे स्पेशल के मेन्यू में अपने ग्राहकों को भी देती हूँ,” संगीता मुस्कुराते हुए कहती हैं।
आज भी इन परंपराओं का भरपूर उपयोग मध्य भारत के कई हिस्सों में देखने को मिलता है। राहुल श्रीवास्तव, जो पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और बाइक राइड का शौक रखते हैं, बताते हैं,
“लगभग हर घर के बाहर नीम का पेड़ था। कई घरों में रसोई चूल्हे छायादार स्थान पर बने थे। गर्मी जैसे वहाँ चिंता ही नहीं थी। मुझे तब ताज्जुब इस बात का हुआ कि जहाँ पर बिजली आसानी से उपलब्ध थी, वहाँ पर भी लोग इन नुस्खों पर निर्भर थे। शायद इसलिए नहीं कि उन्हें आदत है, बल्कि इसलिए कि उन्हें इस पर बहुत विश्वास है,” राहुल आगे कहते हैं।
इस विषय की और तह में जाने के लिए मैंने फलस्वेता रामदयाल (उम्र 35) से बातचीत की। वे बताते हैं,
“हमारे घर में एसी नहीं है, मगर पत्थर की छत, मिट्टी से लिपी हुई दीवारें और खुला आँगन—ये सब मिलकर मेरे घर को किसी भी कंक्रीट के घर से ज़्यादा ठंडा रखते हैं, वो भी बिना ज़्यादा खर्च के।”
यह बात इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंजीनियरिंग रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन से भी प्रमाणित होती है। इसमें उल्लेख है कि कलबुर्गी के पारंपरिक घरों में मोटी मिट्टी की दीवारें, छायादार आँगन और झरोखे जैसी विधियों का उपयोग किया जाता है, जिससे घर के अंदर का तापमान ठंडा बना रहता है।
यह ज्ञान केवल खानपान या रहन-सहन तक सीमित नहीं है, बल्कि वेशभूषा में भी साफ दिखाई देता है। गर्मियों में लोग सूती, खादी और मलमल जैसे सांस लेने वाले कपड़े पहनना पसंद करते हैं, जो न सिर्फ आरामदायक होते हैं, बल्कि शरीर को गर्मी से भी प्रभावी ढंग से बचाते हैं। हल्के रंगों वाले सरल डिज़ाइन के वस्त्र न सिर्फ एक फैशनेबल एलिमेंट हैं, बल्कि एक जलवायु-सचेत विकल्प भी हैं, जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं, धूप से बचाव के लिए गमछा और दुपट्टे का उपयोग पूरे भारत में बड़े पैमाने पर किया जाता है। गाँव हो या शहर, हर जगह लोग इन वस्त्रों का उपयोग करते हैं, जो स्थानीय संस्कृति और व्यावहारिकता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये साधारण से दिखने वाले कपड़े न केवल हमारी परंपराओं से जुड़े हैं, बल्कि आज भी आधुनिक जीवनशैली में अपनी उपयोगिता और महत्व बनाए हुए हैं।
चंदेरी के एक बुनकर सुरेश कहते हैं,
“हमारे बुज़ुर्ग मानते थे कि कपड़ा ऐसा होना चाहिए जो खुद सांस ले। शायद इसी लिए चंदेरी का कॉटन इतना प्रसिद्ध है, क्योंकि यह गर्मी में भी दूसरी त्वचा जैसा अनुभव देता है।”
जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो ये सभी परंपराएं ऊर्जा खपत को कम करने, गर्मी से पारंपरिक और टिकाऊ तरीके से लड़ने और न्यूनतम संसाधनों में अधिकतम आराम देने की दिशा में बेहतरीन उदाहरण हैं। जब हम एसी या कूलर चलाते हैं तो न केवल बिजली की खपत बढ़ती है, बल्कि पर्यावरण पर कार्बन उत्सर्जन का बोझ भी। इसके विपरीत, मटका, खस, नीम, मलमल—ये सभी ‘लो-कार्बन कूलिंग’ के सटीक भारतीय उपाय हैं, जो हरित समाधान के रूप में हमारे पास पहले से मौजूद हैं।
मेरी मटके से शुरू हुई प्राचीन परंपराओं की यह खोज आज भी जारी है। इस शोध यात्रा ने मुझे यह महसूस कराया कि तेज़ रफ्तार आधुनिक दुनिया में भी हमारे पूर्वजों का टिकाऊ ज्ञान एक स्थायी जीवनशैली की ओर मार्गदर्शन करता है। ये परंपराएं न केवल झुलसाती गर्मी से राहत देती हैं, बल्कि हमें हमारी जड़ों से भी फिर जोड़ती हैं—उन जड़ों से, जिन्हें हम अक्सर आधुनिकता की दौड़ में भूल जाते हैं।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियों के इस दौर में, ये परंपराएं और भी अधिक प्रासंगिक हो गई हैं। यह प्राचीन ज्ञान केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य का पथदर्शक भी है। हमें यह याद रखना चाहिए कि शायद, आगे बढ़ने का रास्ता कभी-कभी अपनी जड़ों की ओर लौटने से ही शुरू होता है।