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रिन्यूएबल्स ने नहीं बढ़ाया बिजली बिल, डर की राजनीति पर डेटा भारी

Posted on December 17, 2025

हवा और सूरज से बनने वाली बिजली को लेकर एक दलील अक्सर सुनने को मिलती है. कि ये ऊर्जा भरोसेमंद नहीं है, बैकअप चाहिए, और आखिरकार बिजली महँगी हो जाती है. लेकिन ज़मीन पर मौजूद आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं.

दिसंबर 2025 में प्रकाशित ज़ीरो कार्बन एनालिटिक्स की एक नई रिपोर्ट में यह साफ़ तौर पर सामने आया है कि जिन देशों और राज्यों ने बड़े पैमाने पर पवन और सौर ऊर्जा को अपनाया है, वहाँ बिजली की कीमतें औसत से कम रही हैं. यह रिपोर्ट ऊर्जा विश्लेषक निक हेडली ने तैयार की है और इसमें अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और भारत के वास्तविक बिजली बाज़ार के आंकड़ों का अध्ययन किया गया है.

रिपोर्ट की शुरुआत इसी दावे को परखने से होती है कि क्या वाकई नवीकरणीय ऊर्जा बिजली को महँगा बनाती है. जवाब है. नहीं. बल्कि कई मामलों में उलटा सच है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी के अनुसार आज नई बिजली उत्पादन क्षमता में सबसे सस्ता विकल्प ऑनशोर विंड है, उसके बाद सोलर पीवी. 2024 में ग्रिड से जुड़ी दस में से नौ नई रिन्यूएबल परियोजनाएँ, सबसे सस्ती नई जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली से भी कम लागत पर बिजली दे रही थीं.

अमेरिका के उदाहरण पर आएँ तो रिपोर्ट बताती है कि जिन राज्यों में पवन और सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी औसत से ज़्यादा है, वहाँ घरेलू बिजली दरें आम तौर पर कम हैं. 2025 के पहले नौ महीनों में आयोवा, साउथ डकोटा और न्यू मैक्सिको जैसे राज्यों में, जहाँ आधे से ज़्यादा बिजली हवा और सूरज से आ रही थी, वहाँ कीमतें राष्ट्रीय औसत से नीचे रहीं. इसके उलट कैलिफ़ोर्निया और हवाई जैसे कुछ अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन रिपोर्ट साफ़ करती है कि वहाँ ऊँची कीमतों की वजह नवीकरणीय ऊर्जा नहीं, बल्कि जंगलों में आग से जुड़ी लागतें, ग्रिड अपग्रेड और आयातित ईंधन पर निर्भरता है.

यूरोप की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही है. डेनमार्क, स्पेन जैसे देश जहाँ विंड और सोलर का बड़ा हिस्सा है, वहाँ बिजली की कीमतें यूरोपीय औसत से कम रही हैं. स्पेन में 2025 की पहली छमाही में बिजली का दाम यूरोपीय औसत से करीब 32 प्रतिशत कम था. इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि अब वहाँ गैस और कोयला बिजली के दाम तय करने में कम भूमिका निभा रहे हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का अनुमान है कि सिर्फ 2021 से 2023 के बीच, नई सोलर और विंड क्षमता ने यूरोपीय उपभोक्ताओं को करीब 100 अरब यूरो की बचत कराई.

भारत की बात करें तो तस्वीर थोड़ी अलग लेकिन दिलचस्प है. देश में अभी भी करीब तीन चौथाई बिजली कोयले से बनती है, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर रिन्यूएबल्स और बिजली कीमतों के बीच सीधा रिश्ता दिखना मुश्किल है. लेकिन जहाँ नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार तेज़ है, वहाँ संकेत साफ़ हैं. राजस्थान में डिस्कॉम्स जिस औसत कीमत पर बिजली खरीदते हैं, वह राष्ट्रीय मध्य स्तर से कम है. मध्य प्रदेश पर किए गए एक अकादमिक अध्ययन के मुताबिक, अगर राज्य में रिन्यूएबल्स की हिस्सेदारी बढ़ती है तो बिजली खरीद लागत 11 प्रतिशत तक घट सकती है.

ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण दिखाता है कि कहानी हमेशा सीधी नहीं होती. वहाँ साउथ ऑस्ट्रेलिया में कीमतें ऊँची रही हैं, लेकिन रिपोर्ट याद दिलाती है कि यह समस्या रिन्यूएबल्स से पहले की है और बाज़ार की संरचना व ट्रांसमिशन सीमाओं से जुड़ी है. दिलचस्प बात यह है कि रोज़मर्रा के आंकड़े बताते हैं कि जब साउथ ऑस्ट्रेलिया में 85 प्रतिशत से ज़्यादा बिजली हवा और सूरज से आती है, तो कई बार थोक बिजली कीमतें शून्य से नीचे चली जाती हैं.

रिपोर्ट का निष्कर्ष सीधा है. बिजली के दाम कई कारकों से तय होते हैं. टैक्स, ग्रिड लागत, ईंधन आयात, बाज़ार नियम. लेकिन यह कहना कि नवीकरणीय ऊर्जा अपने आप में बिजली को महँगा बना देती है, आंकड़ों से साबित नहीं होता. बल्कि जिन जगहों पर हवा, सूरज और अब बैटरी स्टोरेज का विस्तार तेज़ है, वहाँ उपभोक्ताओं को महँगी गैस और कोयले की मार से राहत मिली है.

निक हेडली लिखते हैं कि जैसे जैसे विंड, सोलर और बैटरी की लागत गिरती जा रही है, देशों के पास मौका है कि वे सस्ती, स्थिर और झटकों से सुरक्षित बिजली व्यवस्था बना सकें. बशर्ते नीतियाँ इस बदलाव की रफ्तार को थामें नहीं, बल्कि आगे बढ़ाएँ.

यानी सवाल यह नहीं कि रिन्यूएबल ऊर्जा महँगी है या नहीं. सवाल यह है कि क्या हम महँगे और अस्थिर जीवाश्म ईंधन पर टिके रहना चाहते हैं, या सस्ती और साफ़ ऊर्जा की ओर बढ़ना चाहते हैं. डेटा अपनी बात साफ़ कह चुका है.

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