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आपका सादा खाना भी काफ़ी ‘ओइली’ है!

Posted on June 26, 2025

क्या आप जानते हैं कि आपका सादा खाना भी काफ़ी ‘ओइली’ है?
नहीं, हम घी या सरसों तेल की बात नहीं कर रहे—हम बात कर रहे हैं उस कच्चे तेल की जिसकी कीमत इज़राइल-ईरान जैसे युद्धों से तय होती है, और जिसकी लत में डूबी है आज की पूरी खाद्य प्रणाली।

आज चावल से लेकर चिप्स के पैकेट तक, खेत से लेकर किराना स्टोर तक, हर चीज़ में छुपा है डीज़ल, पेट्रोल और पेट्रोकेमिकल्स का जाल।
IPES-Food की नई रिपोर्ट कहती है—हमारा खाना अब मिट्टी में नहीं, तेल में उगता है।

खाद, कीटनाशक, ट्रांसपोर्ट, पैकिंग, कोल्ड स्टोरेज—हर स्तर पर तेल और गैस की निर्भरता इतनी गहरी है कि खाने की कीमत अब फसल से ज़्यादा, फॉसिल फ्यूल मार्केट से तय होती है।

और जब तेल की कीमत बढ़ती है, भूख भी महंगी हो जाती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो आज जो चावल, सब्ज़ी, फल, आपकी थाली में और जो पैकेटबंद बिस्किट आपकी हथेली में हैं—उनमें मिट्टी से ज़्यादा शायद मिट्टी से निकलने वाला तेल छिपा है। और यही तेल अब हमारी रसोई में भूख का नया एजेंट बन चुका है। एक ऐसा एजेंट जिसकी कीमत इज़राइल-ईरान जैसे युद्ध तय करते हैं, और ऐसी वजह जो गरीब की थाली भी महंगी कर देती है।

मामला दरअसल ये है कि IPES-Food की रिपोर्ट ‘Fuel to Fork’ बताती है—हमारे खाने की पूरी चेन तेल पर चलती है। खेत से लेकर थाली तक।

अब खेत में मिट्टी से ज़्यादा डीज़ल की महक

चलिए एक गांव की तस्वीर सोचिए—बिहार का सिवान, या हरियाणा का कैथल। वहां एक किसान सुबह उठकर ट्रैक्टर स्टार्ट करता है, बीज डालता है, खाद छिड़कता है। पर वो खाद, वो ट्रैक्टर, वो सिंचाई—सब कुछ तेल या गैस से जुड़ा है।

  • खेतों में जो यूरिया और DAP डलती है—उसका 99% हिस्सा फॉसिल फ्यूल से बनता है
  • खेत से सब्ज़ी लेकर जो ट्रक शहर जाता है—वो डीज़ल पीता है
  • और फिर जब तुम मॉल से बिस्किट या नमकीन का पैकेट उठाते हो, तो उसकी प्लास्टिक पैकिंग भी तेल से बनी होती है

मतलब ये कि हमारे खाने में अब मिट्टी से ज़्यादा तेल की बू है।

जब तेल बढ़ेगा, भूख भी बढ़ेगी

आपको याद है न, साल 2022 में जब पेट्रोल ₹100 के पार गया था, सब्ज़ी और दूध के दाम भी आसमान छू गए थे। वही सिलसिला अब फिर सिर उठाता दिख रहा है।

IPES-Food के एक्सपर्ट राज पटेल कहते हैं:

“जब खाना तेल पर टिका हो, तो हर युद्ध, हर संकट सीधा आपकी थाली पर असर डालता है।”

इसका सीधा असर मध्यमवर्ग और ग्रामीण परिवारों पर पड़ेगा—जहाँ पहले ही थाली से दाल गायब होती जा रही है। जो किसान खाद खरीदते थे, अब उधारी में बीज लेते हैं। और जो शहरों में रहते हैं, उनके लिए सब्ज़ियाँ अब मौसमी नहीं, महँगी हो गई हैं।

और ये जो ‘सोल्यूशन’ बेचे जा रहे हैं, वो असल में जाल हैं

अब कंपनियाँ कहती हैं—‘डिजिटल फार्मिंग करिए’, ‘ब्लू अमोनिया अपनाइए’, ‘स्मार्ट फर्टिलाइज़र लीजिए’। पर सच ये है कि ये सब फिर से तेल पर ही टिका है, और किसानों को नई तरह की गुलामी की ओर धकेलता है—जहाँ उनका डेटा भी बिकता है और फ़सल भी।

यानी समाधान के नाम पर फिर से वही मुनाफ़ा, वही तेल, वही कंट्रोल।

लेकिन रास्ता है—गाँवों में, मंडियों में, यादों में

भारत का असली खाना वो है जो दादी की रसोई से आता था—मक्का, ज्वार, सब्ज़ी की रसेदार तरी, बिना प्लास्टिक के, बिना रासायनिक खाद के।

IPES-Food की विशेषज्ञ Georgina Catacora-Vargas कहती हैं:

“फॉसिल फ्यूल-मुक्त फूड सिस्टम कोई सपना नहीं है—वो आज भी हमारे आदिवासी और देसी समुदायों में जिंदा है।“

छत्तीसगढ़ की बस्तर मंडी, मेघालय का सामुदायिक बाग़ान, विदर्भ की महिला किसान समूह—ये सब बताते हैं कि लोकल, जैविक और विविध खाना सिर्फ़ स्वाद नहीं, आज आज़ादी की पहचान बन चुका है।

अब सवाल यह है:

क्या COP30 जैसी जलवायु वार्ताओं में खाने की बात होगी?

या फिर हम जलवायु को सिर्फ़ कार्बन क्रेडिट की भाषा में ही समझते रहेंगे, और रसोई में खड़ा किसान फिर से छूट जाएगा?

तेल से टपकती इस थाली को अब बदलाव की ज़रूरत है।
वो बदलाव खेतों की मिट्टी में, देसी बीजों में, लोकल मंडियों में और थाली की सादगी में छुपा है।

आप बताइये—क्या हम फिर से अपने खाने को आज़ाद कर सकते हैं?

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