दुनिया के तापमान तेज़ी से बढ़ रहे हैं, तूफान और सूखा अब मौसम नहीं, ज़िंदगियों का सवाल बन चुके हैं, मगर इस जंग में सबसे अहम हथियार, यानी क्लाइमेट एडेप्टेशन फाइनेंस, अब भी पीछे छूट रहा है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की नई रिपोर्ट Adaptation Gap Report 2025: “Running on Empty” ने चेताया है कि विकासशील देशों को 2035 तक हर साल कम से कम 310 अरब डॉलर की ज़रूरत होगी ताकि वे जलवायु प्रभावों से खुद को बचा सकें।
लेकिन हकीकत यह है कि 2023 में यह मदद सिर्फ़ 26 अरब डॉलर रही, यानि ज़रूरत और मदद के बीच अब 12 से 14 गुना का फासला है।
एडेप्टेशन कोई खर्च नहीं, ज़िंदगी की लाइफ़लाइन है
UN महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा, “जलवायु प्रभाव हर दिन तेज़ हो रहे हैं, लेकिन एडेप्टेशन फाइनेंस उस रफ्तार से नहीं बढ़ रहा। यह खर्च नहीं, जीवनरेखा है। अगर अभी निवेश नहीं किया, तो हर साल कीमत और भारी पड़ेगी।”
UNEP की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडर्सन ने भी साफ़ कहा, “दुनिया के हर कोने में लोग जलवायु संकट झेल रहे हैं, हीटवेव, बाढ़, सूखा, बढ़ती लागतें। अगर अभी एडेप्टेशन में निवेश नहीं हुआ, तो हर साल नुकसान और बढ़ेगा।”
रिपोर्ट की तस्वीर: प्लानिंग बढ़ी, पैसा घटा रिपोर्ट बताती है कि अब 172 देशों के पास कम से कम एक एडेप्टेशन पॉलिसी या स्ट्रैटेजी है, लेकिन उनमें से 36 देश ऐसे हैं जहाँ यह नीति दस साल पुरानी हो चुकी है। सिर्फ़ चार देश ऐसे हैं जिनके पास अभी कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।
देशों ने अपने Biennial Transparency Reports (BTRs) में 1600 से ज़्यादा एडेप्टेशन एक्शन की रिपोर्ट दी है, मुख्यतः जैवविविधता, कृषि, जल और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में।
लेकिन ज़्यादातर देशों ने अभी तक यह नहीं बताया कि इन कदमों का असर ज़मीन पर कितना हुआ है, जैसे पानी की उपलब्धता, खेती की उपज या इकोसिस्टम की बहाली में क्या सुधार आया।
ग्लासगो वादा अधूरा, नया लक्ष्य भी नाकाफी
रिपोर्ट कहती है कि अगर मौजूदा रुझान जारी रहे, तो ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट का लक्ष्य, यानि 2019 के स्तर से एडेप्टेशन फाइनेंस को दोगुना कर 2025 तक 40 अरब डॉलर तक पहुँचाने का वादा, पूरा नहीं हो पाएगा।
यह भी सामने आया कि COP29 के “New Collective Quantified Goal (NCQG)” के तहत विकसित देशों ने 2035 तक हर साल कम से कम 300 अरब डॉलर का क्लाइमेट फंड देने का संकल्प लिया, पर इसमें mitigation और adaptation दोनों शामिल हैं। यानि असल एडेप्टेशन हिस्सा इससे बहुत कम रहेगा।
अगर 3% वार्षिक महंगाई दर जोड़ी जाए, तो 2035 तक एडेप्टेशन ज़रूरत 440 से 520 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगी, जिसका मतलब है कि यह फंडिंग भी काफी नहीं होगी।
‘बाकू से बेलें’ रोडमैप: बड़ी उम्मीद, पर सावधानी ज़रूरी
रिपोर्ट ने Baku to Belém Roadmap का ज़िक्र किया है, जो 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाने की योजना पर आधारित है। इसका मकसद है क्लाइमेट रेज़िलिएंट और लो-कार्बन डेवलपमेंट को बढ़ाना। लेकिन UNEP ने आगाह किया है कि अगर यह पैसा कर्ज़ के रूप में आया, तो यह कमज़ोर देशों पर नया बोझ बन जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि इसमें ग्रांट, कन्सेशनल फाइनेंस और नॉन-डेब्ट इंस्ट्रूमेंट्स को प्राथमिकता दी जाए।
निजी क्षेत्र की भूमिका: संभावनाएँ हैं, पर तैयारी कम
अभी तक निजी क्षेत्र का योगदान सिर्फ़ 5 अरब डॉलर प्रति वर्ष है, जबकि रिपोर्ट के अनुसार यह क्षमता 50 अरब डॉलर तक पहुँच सकती है, यानि कुल ज़रूरत का लगभग 15-20% हिस्सा। लेकिन इसके लिए सरकारों को नीतिगत प्रोत्साहन और “ब्लेंडेड फाइनेंस” मॉडल अपनाने होंगे, जहाँ सार्वजनिक पैसा जोखिम कम करे और निजी निवेश को बढ़ावा मिले।
कहानी का सार: अब वक्त सिर्फ़ बातों का नहीं, पुल बनाने का है
रिपोर्ट का नाम Running on Empty है, और यह नाम ही सब कह देता है। योजना है, नीतियाँ हैं, लक्ष्य हैं, पर ईंधन नहीं है। विकासशील देशों के लिए यह वक्त सिर्फ़ “एडेप्टेशन” का नहीं, बल्कि “सर्वाइवल” का है। अगर फाइनेंस का यह फासला नहीं भरा गया, तो तापमान से पहले अर्थव्यवस्थाएँ और ज़िंदगियाँ टूटेंगी।