ग्रीन हाइड्रोजन मिशन को रफ्तार देते हुए हाल ही में भारत सरकार ने 400 करोड़ रुपये की लागत वाला एक आर एण्ड डी (अनुसंधान एवं विकास) रोडमैप पेश किया है। साथ ही, भारत ने साल 2030 तक सालाना पांच मिलियन मैट्रिक टन (एमएमटी) ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन का लक्ष्य भी रखा है। लेकिन इस बीच एक नए शोध से पता चलता है कि ग्रिड-संचालित इलेक्ट्रोलिसिस से पैदा होने वाली ग्रीन हाइड्रोजन से एम्बोडीड या समावेशित कार्बन एमिशन, फ़ोस्सिल फ्यूल से उत्पन्न पारंपरिक “ग्रे” हाइड्रोजन के उत्पादन के दौरान होने वाले एमिशन से कहीं ज्यादा हो सकता है।
अपने इस शोध के माध्यम से जलवायु थिंक टैंक ‘क्लाइमेट रिस्क होराइजंस’ ने आगाह किया है कि भारत के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वो अपने इस मिशन के लिए सही सुरक्षा उपाय और कार्बन अकाउंटिंग के साथ आगे बढ़े क्योंकि इनके बगैर यह मिशन कार्बन उत्सर्जन में और भी इज़ाफ़ा भी कर सकता है।
क्लाइमेट रिस्क होराइजंस ने ‘ग्रीन हाइड्रोजन : प्रॉमिसेज एण्ड पिटफाल्स’ शीर्षक वाली अपनी इस रिपोर्ट में आगाह किया है कि तथाकथित ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन अगर एनेर्जी अकाउंटिंग के सख्त मानकों के बगैर किया गया तो यह जलवायु के लिए सही नहीं होगा। बल्कि यह तो फ़ोस्सिल फ्यूल से पैदा होने वाली परम्परागत ग्रे हाइड्रोजन के मुकाबले कई गुना खराब हो सकती है। साल 2030 तक हर साल पांच एमएमटी ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने के लिये करीब 250 टेरावॉट बिजली की जरूरत होगी जो भारत की मौजूदा कुल बिजली उत्पादन का लगभग 13 प्रतिशत है। अगर इसमें से कुछ बिजली भारत के कोयला-संचालित ग्रिड से आती है, तो यह वातावरण में अच्छे खासे एमिशन को बढ़ावा देगी। ध्यान रहे भारत का 70% बिजली उत्पादन कोयले पर निर्भर है।
नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने हाल ही में ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन के लिए एमिशन की सीमाएँ भी घोषित की हैं, लेकिन अकाउंटिंग और प्रमाणन के तौर-तरीकों को अभी अंतिम स्वरूप दिया जाना बाकी है। इस पद्धति की सम्पूर्णता यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण होगी कि ग्रीन हाइड्रोजन में जीवाश्म ईंधन से चलने वाली बिजली से उत्सर्जन शामिल नहीं है।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए क्लाइमेट रिस्क होराइजंस के सीईओ आशीष फर्नांडिस कहते हैं, “मंत्रालय के लिए यह एक अहम मुद्दा होना चाहिए। ग्रीन हाइड्रोजन में औद्योगिक क्षेत्र से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की व्यापक संभावनाएं हैं लेकिन यह तभी हो सकता है जब इसके लिए अकाउंटिंग और सुरक्षा संबंधी नियम-कायदे बहुत सख्त हों। इसका मतलब यह है कि इसके लिए 100 प्रतिशत नई अतिरिक्त अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल होगा जो कि प्रति घंटे के आधार पर उपभोग से मेल खाता हो। अगर नियम-कायदों में खामियां होंगी तो इससे कार्बन एमिशन में वास्तविक कटौती का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा। इससे ग्रीन हाइड्रोजन मार्केट शुरू होने से पहले ही कमजोर हो जाएगी।”
जलवायु प्रदूषण से जुड़े जोखिमों के अलावा यह रिपोर्ट इस बात को भी साफ करती है कि किस तरह से ग्रीन हाइड्रोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा सकती है, निर्यात बाजारों में उद्योग की पहुंच को कम कर सकती है और एनेर्जी ट्रांज़िशन में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकती है। इन कमियों को टालने के लिए कार्बन अकाउंटिंग पद्धति में अन्य चीजों के अलावा स्कोप 2 एमिशन को भी शामिल करना चाहिए ताकि ग्रीन हाइड्रोजन के निर्माण की प्रक्रिया में होने वाले बिजली के इस्तेमाल से उत्पन्न उत्सर्जन का भी लेखा-जोखा सुनिश्चित हो सके।
अमेरिका द्वारा किए गए मौजूदा शोध से पता चलता है कि कार्बन की वास्तविक कटौती सुनिश्चित करने के लिए इलेक्ट्रोलाइजर के लिए बिजली की जरूरत को सिर्फ मासिक या वार्षिक आधार के बजाय प्रति घंटे के आधार पर समर्पित क्लीन एनेर्जी सप्लाई के साथ मेल खाना चाहिए। हाइड्रोजन इलेक्ट्रोलिसिस के लिए तैयार की गई क्लीन एनेर्जी भी अतिरिक्त होनी चाहिए जिससे मौजूदा रेन्युबल एनेर्जी सप्लाई या बिजली ग्रिड को डीकार्बनाइज करने के लिए नियोजित रेन्युबल एनेर्जी केपेसिटी को नष्ट होने से बचाया जा सके। आखिर में रेन्युबल एनेर्जी और ग्रीन हाइड्रोजन फैसिलिटी को एक ही ग्रिड से जोड़ा जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि इलेक्ट्रोलाइजर की बिजली संबंधी मांग कोयले के बजाय क्लीन एनेर्जी के जरिए पूरी हो।”
आगे फर्नांडीज कहते हैं कि, “साल 2030 तक 450 गीगावॉट रेन्युबल एनेर्जी उत्पादन के भारत के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए पहले ही भारी मात्रा में निवेश की जरूरत है। ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के लिए 125 गीगावॉट अतिरिक्त रेन्युबल एनेर्जी की जरूरत होगी।”