दुनिया में अक्षय ऊर्जा को अपनाने के प्रति बढ़ती होड़ के बीच विशेषज्ञों का मानना है कि बेहतर भविष्य के लिये जरूरी ऊर्जा रूपांतरण के इस काम में सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय सरोकारों के साथ संतुलन बनाना बहुत जरूरी है और सरकार तथा सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को इस मामले में बेहद संजीदगी और संवेदनशीलता से काम करना होगा।
कट्स इंटरनेशनल और क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा शुक्रवार को आयोजित वेबीनार में विशेषज्ञों ने ऊर्जा के ‘न्यायपूर्ण रूपांतरण’ के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से अपनी बात रखी। राजस्थान पर केन्द्रित इस वेबिनार में विशेषज्ञों ने जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा क्षेत्र, अर्थव्यवस्था, समाज और पारिस्थितिकी के परस्पर जुड़ाव से सम्बन्धित मुद्दों पर व्यापक चर्चा की।
राजस्थान ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक रोहित गुप्ता ने वेबिनार में कहा कि हमें इस बात को भी देखना होगा कि परंपरागत ऊर्जा छोड़कर अक्षय ऊर्जा अपनाने की कीमत समाज के किसी एक वर्ग को ही ना चुकानी पड़े। यह हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है। अक्षय ऊर्जा रूपांतरण को पूरी तरह से अमलीजामा पहनाने से पहले इस बात को देखना होगा कि जो लोग कोयला आधारित अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं, उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा।
उन्होंने कहा कि कृषि बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। ऊर्जा रूपांतरण में हमें यह भी देखना होगा कि उस ऊर्जा की दरें किसानों की क्रय क्षमता के अंदर हों और अक्षय ऊर्जा से कृषि क्षेत्र की बिजली संबंधी सभी जरूरतों को पूरा किया जा सके। इसके अलावा यह भी देखना होगा कि उद्योगों तथा घरेलू उपभोक्ताओं पर अक्षय ऊर्जा की दरों का क्या असर होगा।
नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के क्लाइमेट एक्शन विंग की मुख्य अनुसंधानकर्ता स्वाति डिसूजा ने भारत के परिप्रेक्ष्य में ऊर्जा के न्याय संगत रूपांतरण की सही परिभाषा तय करने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि जब हम भारत में ऊर्जा रूपांतरण की बात करते हैं तो हम वित्तपोषण प्रौद्योगिकी और आर्थिक पहलुओं पर ही गौर करते हैं लेकिन सभी जानते हैं कि कोयले और लिग्नाइट का दौर अब खत्म होने वाला है। हमें सबसे पहले भारत में ‘कोल ट्रांजिशन वर्कर’ की परिभाषा पर गौर करना होगा। कोयला क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या ऐसे कामगारों की है जो संविदा पर काम करते हैं या वे दिहाड़ी मजदूर हैं इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि जब हम कोल ट्रांजिशन वर्कर या लिग्नाइट ट्रांजिशन वर्कर की परिभाषा तय करते हैं तो इस असंगठित क्षेत्र को कैसे देखते हैं। जब हम फॉसिल फ्यूल ट्रांजिशन वर्कर की परिभाषा तय करते हैं तो जो लोग बाकायदा लिखा-पढ़ी में कामगार हैं उन्हें तो लाभ मिलता है, लेकिन जो नहीं है वे फायदे से महरूम रह जाते हैं। ऐसे कामगारों की सही तादाद मालूम हो तभी इस बात का अंदाजा लग पाएगा कि वास्तव में ऊर्जा रूपांतरण की क्या कीमत चुकानी होगी।
उन्होंने कहा ‘‘जब हम ऊर्जा के न्याय संगत रूपांतरण परिप्रेक्ष्य की बात करते हैं तो हमें पर्यावरण और रोजगार के तत्वों को भी उसमें शामिल करना होगा। हमें इसे क्षेत्रीय औद्योगिक नीति और राज्य औद्योगिक नीति में शामिल करना होगा।
साथ ही यह भी देखना होगा कि इस काम में निरंतरता बनी रहे।’’
द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (टेरी) के सोशल ट्रांसफॉरमेशन विभाग के वरिष्ठ निदेशक अमित कुमार ने ऊर्जा रूपांतरण के अन्य पहलुओं तथा इस कवायद को न्यायसंगत बनाने के लिये जरूरी बातों पर व्यापक चर्चा करते हुए कहा “आमतौर पर विकास से जुड़ी परियोजनाओं में समाज की राय नहीं ली जाती। जब तक हम विकास से जुड़े हुए निर्णय में समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं करते, तब तक इसे न्याय संगत नहीं कहा जा सकता।”
उन्होंने कहा कि जब हम ऊर्जा रूपांतरण की बात करते हैं तो हम सिर्फ बिजली रूपांतरण के बारे में ही चर्चा करते हैं। ऐसा करके हम बिजली के अन्य प्रयोगों को बेहद आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं। चाहे वह परिवहन के क्षेत्र में हुआ प्रयोग हो या फिर खाना बनाने में या फिर एमएसएमई में। इसी तरह जब हम ऊर्जा रूपांतरण की सामाजिक लागत पर बात करते हैं तो ज्यादातर उन क्षेत्रों की बात करते हैं जो अपने आर्थिक विकास के लिए कोयले पर निर्भर हैं, लेकिन मेरा मानना है कि हमें ऊर्जा रूपांतरण में एनर्जी पॉवर्टी और एनर्जी एक्सेस के मुद्दों को भी शामिल करके उनका समाधान करना चाहिए।
कुमार ने राजस्थान का उदाहरण देते हुए कहा कि इस राज्य में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ऊर्जा उपभोग लगभग 1300 किलोवाट है जो गुजरात का लगभग आधा है, लिहाजा राजस्थान में बिजली की बेहतर पैठ बनाने की काफी संभावनाएं हैं। उज्ज्वला योजना के तहत करोड़ों महिलाओं को गैस कनेक्शन दिया गया था लेकिन इसके ज्यादातर लाभार्थियों के सिलेंडर को दोबारा भरवाने की क्षमता नहीं होने की वजह से उसका कोई खास फायदा नहीं हुआ। दरअसल हमें ऊर्जा रूपांतरण के भविष्य का भी आकलन करना चाहिए। मेरा मानना है कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है। हम एक साथ मिलकर ही ऊर्जा रूपांतरण को न्याय संगत बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं।
कट्स इंटरनेशनल के शोध निदेशक अमोल कुलकर्णी ने कहा कि अक्षय ऊर्जा ने अपनी बेहतरीन संभावनाओं के बूते भारत के साथ साथ पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा है। भारत ने वर्ष 2030 तक 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। मगर ऊर्जा रूपांतरण से जुड़े मसलों का संज्ञान लेना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इस रूपांतरण से प्रभावित होने वाले विभिन्न पक्षों की चिंताओं को सुनने और समझने के लिए एक मजबूत रणनीति बनाया जाना बहुत जरूरी है। इसके लिए विचार-विमर्श के दायरे को स्थानीय तथा प्रदेश स्तर तक ले जाना होगा।
उन्होंने कहा कि हजारों परिवारों की रोजी-रोटी कोयला क्षेत्र पर निर्भर करती है। ऐसे में यह देखना होगा कि ऊर्जा रूपांतरण के लिए क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। रूपांतरण करते वक्त यह सुनिश्चित करना होगा कि इन परिवारों का भविष्य सुरक्षित रहे। हम इस बात का अंदाजा लगाने में जुटे हुए हैं कि ऊर्जा रूपांतरण का क्या असर होगा। अक्षय ऊर्जा निश्चित रूप से एक बेहतर भविष्य के लिए बहुत जरूरी है। प्रौद्योगिकीय उन्नयन और निवेश में बढ़ोत्तरी बेहद महत्वपूर्ण पहलू है जिन पर बहुत सुनियोजित तरीके से काम करना होगा।
कुलकर्णी ने राजस्थान द्वारा पेश की गई स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन की संभावनाओं का जिक्र करते हुए कहा “राजस्थान में 30 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस राज्य में दुनिया का सबसे बड़ी सौर ऊर्जा परियोजना भी है। मुद्दा यही है कि हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि राजस्थान ऊर्जा के न्याय संगत रूपांतरण का रास्ता निकालेगा।”
कट्स इंटरनेशनल के सार्थक शुक्ला ने एक प्रस्तुतीकरण देते हुए राजस्थान के स्वच्छ ऊर्जा रूपांतरण की वर्तमान स्थिति पर रोशनी डाली। साथ ही राज्य के ऊर्जा क्षेत्र की स्थिति तथा स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त भविष्य के मकसद से रूपांतरण के दौरान ऊर्जा क्षेत्र के सामने खड़ी मुख्य चुनौतियां का भी जिक्र किया। उन्होंने राजस्थान में कोयले के बजाय अक्षय ऊर्जा अपनाने के काम में पूर्ण पारदर्शिता और जवाबदेही तय किए जाने की जरूरत पर भी जोर दिया।
उन्होंने कहा कि ऊर्जा रूपांतरण के दौरान बिजली वितरण कंपनियों, उद्योगों, सरकार, उपभोक्ताओं तथा विभिन्न उपयोगकर्ता क्षेत्रों के हितों के बीच संतुलन बनाना होगा। इस रूपांतरण का समावेशी तरीके से वित्तपोषण करना होगा। साथ ही कोयला बिजली घरों को न्याय संगत और चरणबद्ध ढंग से इस्तेमाल से बाहर करना होगा। इसके अलावा अनूठे बिजनेस मॉडल तैयार करने के साथ-साथ हाइड्रोजन ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, बैटरी स्टोरेज के प्रौद्योगिकीय अनुकूलन के लिए उपभोक्ताओं, कामगारों और आम लोगों के हितों को केंद्र में रखकर नीतियां बनानी होंगी।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि किसी भी तरह के रूपांतरण की अपनी कीमत चुकानी पड़ती है। जहां तक परंपरागत ऊर्जा को छोड़कर अक्षय ऊर्जा को अपनाने का सवाल है तो इसके लिए भी कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर बेहतर भविष्य के लिए इस रूपांतरण को अंजाम देना ही होगा। हमें ऐसे उपाय निकालने होंगे कि इस रूपांतरण से प्रभावित होने वाले वर्गों और क्षेत्रों पर इसका कम से कम असर हो और वे जल्द ही इससे उबर जाएं। साथ ही उन्हें एक बेहतर भविष्य भी मिले।
बास्क रिसर्च फाउंडेशन के सीईओ सिमरन ग्रोवर ने राजस्थान में ऊर्जा व्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि अतिरिक्त उत्पादन क्षमता होने के बावजूद बिजली कंपनियां खुले बाजार से बिजली खरीद रही हैं। सिर्फ सस्ती ही नहीं बल्कि महंगी बिजली भी खरीदी जा रही है। यह एक आश्चर्यजनक बात है। जहां तक अक्षय ऊर्जा का सवाल है तो मौजूदा वितरण क्षमता बेहद खराब है। वित्तीय पहलू को देखें तो स्थिति और भी जटिल है।
स्टिचिंग एसईडी फंड के कार्यक्रम निदेशक कार्तिकेय सिंह ने कहा कि मौजूदा वक्त में सरकार खुद भी कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर करती है। राज्य सरकारों को यह सोचना होगा कि कैसे वे ऊर्जा रूपांतरण को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकती हैं। ऊर्जा रूपांतरण होने की स्थिति में बड़ी संख्या में लोगों की नौकरी खत्म हो जाएगी, ऐसे में सरकार को इस बात का पूरा इंतजाम करना होगा कि यह रूपांतरण संतुलित और न्याय संगत हो।