महामारी की वजह से जहाँ महीने की बिजली मांग में 20 फ़ीसद की कमी आयी, वहीँ बिजली क्षेत्र से कार्बन उत्सर्जन में 50 फ़ीसद तक की कमी दर्ज की गयी।
निशान्त
इस बात में दो राय नहीं कि कोरोना वायरस महामारी ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में गिरावट दर्ज की है। इस बात का इशारा पिछले साल से साफ़ है। और इस ट्रेंड की वजह भी साफ़ है। वो है लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था की कमर टूटना और उसकी वजह से बिजली की मांग कम होना।
लेकिन इस सरल सी लगने वाली बात का एक और बारीक पहलु भी है। एक नए विश्लेषण से पता चलता है कि ख़राब अर्थव्यवस्था और गिरती मांग के साथ-साथ बिजली उत्पादन प्रणाली पर असर डालता एक और उप-तंत्र भी है। और ख़बर ये है कि महामारी ने बिजली की मांग तो कम कर ही दी, लेकिन कुल बिजली उत्पादन में कोयला जलाने से उत्पन्न बिजली का अनुपात भी कम हो गया है।
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित इस विश्लेष्ण पर जर्मनी के पॉट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट रिसर्च के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक, और इस विश्लेष्ण के एक लेखक क्रिस्टोफ बर्ट्रम, अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, “इस स्थिति से एक बात अब साफ़ है कि बिजली उत्पादन में उत्सर्जन में कमी को एक मौका मिला है। साथ ही, अब ये भी दिख रहा है की कोयला बिजली उत्पादन बाज़ार की स्थिति कितनी नाज़ुक है और इसमें निवेश करना कितना जोखिम भरा है।”
दरअसल बर्ट्राम और उनके सहयोगियों ने तमाम प्रकाशित स्रोतों से वैश्विक बिजली उत्पादन, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और आर्थिक गतिविधि पर डेटा एकत्र किया। उदाहरण के तौर पर भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में बिजली उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने वाले ईंधन मिश्रण पर डेटा। ये वो तीन बाज़ार हैं जो साल 2019 में एक साथ बिजली उत्पादन से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार हैं। इन आंकड़ों के अध्ययनं से पता चला कि जहाँ महामारी की वजह से महीने की बिजली मांग में 20 फ़ीसद की कमी आयी, वहीँ बिजली क्षेत्र से कार्बन उत्सर्जन में 50 फ़ीसद तक की कमी आई।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जीवाश्म-ईंधन-आधारित बिजली संयंत्र बनाने के लिए भले ही सस्ते हैं लेकिन उन्हें चलाने का खर्च ज़्यादा है। इसलिए जब मांग गिरती है तो सबसे पहले उन्हें ही ऑफ़लाइन किया जाता है। वहीँ रेन्युब्ल और परमाणु ऊर्जा संयंत्र बनाने के लिए महंगे हैं लेकिन चलाने के लिए सस्ते। इसलिए बिजली की मांग कम होने पर भी उनके मालिक उन्हें उन्हें बिजली पैदा करने देते हैं।
आगे बात करें तो आपको जान कर हैरत होगी कि प्राकृतिक गैस उत्पादन की तुलना में कोयला उत्पादन में और भी अधिक गिरावट आई है। यह कुछ हद तक हैरान करने वाली बात है क्योंकि प्राकृतिक गैस की लागत आमतौर पर कोयले से अधिक होती है। लेकिन जीवाश्म ईंधन की मांग में व्यापक गिरावट, उसके चलते उसकी कीमतों में गिरावट, लेकिन कोयला खनन और ढुलाई की उच्च लागत, और यूरोपीय कार्बन मूल्य निर्धारण जैसी सभी वजहों के मिश्रित प्रभाव से कोयला बिजली उत्पादन में इतनी गिरावट देखने को मिली।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कुल मिलाकर, बिजली उत्पादन से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन, 2020 में 2019 की तुलना में 6.8 फ़ीसद कम था। ये पिछले कुछ अध्ययनों की तुलना में ज़्यादा बड़ी गिरावट है।
इन अध्ययनों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बर्ट्रम कहते हैं कि, “इन अध्ययनों में ये मान कर चला गया कि बिजली उत्पादन की कार्बन तीव्रता या जीवाश्म ईंधन बिजली उत्पादन की शक्ति स्थिर रहेगी। और इसीलिए उन्होंने कोयले की मांग के यूँ गिरने का हिसाब नहीं रखा। लेकिन हमारे अध्ययन ने इसे पहचान लिया।”
वो आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं है 2020 के उत्सर्जन और मांग में कमी के ये आंकड़े इस बात को नकार रहे हैं कि पिछले साल का अनुभव जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए नगण्य हैं। लेकिन हाँ, इससे आधार मिलता है बिजली उत्पादन क्षेत्र में ढांचागत परिवर्तन करने का।”
एक महत्वपूर्ण बात जो इस टीम के विश्लेषण से पता चलती है वो ये है कि वैश्विक बिजली प्रणाली उत्सर्जन फिर कभी 2018 वाले शिखर तक नहीं पहुंच सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि 2020 में आये ठहराव ने कम कार्बन के साथ बिजली उत्पादन के ट्रेंड को मज़बूत बनाया। जब तक यह पैटर्न जारी रहेगा, तब तक कुल बिजली उत्पादन में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी घटती जाएगी और कुल उत्सर्जन 2018 के स्तर से नीचे ही रहेगा।
बेशक, इस विश्लेषण को जलवायु परिवर्तन के लिए कोई निष्कर्ष नहीं माना जा और बहुत कुछ आने वाले समय में कोयले के मूल्य निर्धारण पर निर्भर करेगा। लेकिन इससे एक सवाल ज़रूर खड़ा होता है कि क्या कोविड बन गया कोयले का काल?”