भारत में ग्रीन पावर खरीदना अब पहले से कहीं ज़्यादा आसान है—कम से कम कागज़ों पर। 2022 में केंद्र सरकार ने Green Energy Open Access Rules लागू किए, जिनका मक़सद था: कंपनियों को रिन्यूएबल एनर्जी का सीधा रास्ता दिखाना, और देश को 2070 के नेट ज़ीरो लक्ष्य की ओर तेज़ी से ले जाना।
अब 100 किलोवॉट से ज़्यादा सालाना खपत करने वाले किसी भी Commercial या Industrial (C&I) उपभोक्ता के पास यह विकल्प है कि वह सीधे किसी भी solar, wind या दूसरे renewable source से बिजली ख़रीद सकता है—बिना राज्य की वितरण कंपनियों (DISCOMs) की मेहरबानी के।
इसी व्यवस्था को कहा गया Open Access—एक ऐसा ओपन मार्केट, जहां बिजली का सौदा सीधे जेनरेटर और उपभोक्ता के बीच होता है।
नीति के स्तर पर यह एक बड़ा और स्वागतयोग्य कदम था। मगर असल सवाल यह है: क्या ज़मीनी हालात भी उतने ही खुले हैं?
पॉलिसी में आज़ादी, प्रक्रिया में पेंच
क़ानूनी तौर पर इंडस्ट्रीज़ को अब हरित ऊर्जा चुनने की छूट है। लेकिन जैसे ही वे इस रास्ते पर चलने की कोशिश करती हैं, नीतिगत अस्पष्टता, राज्यवार असमानताएं और डिस्कॉम की ना-नुकुर सामने आ जाती हैं।
हर राज्य ने Open Access को अपने तरीके से अपनाया—कहीं तेज़ी से, तो कहीं बेहद धीमे। DISCOMs आज भी NOC देने में आनाकानी करते हैं, और regulatory पेचीदगियां कंपनियों को पीछे खींच लेती हैं।
ग्रिड की हालत, वॉलेट से निकले बैंकिंग चार्जेज़, फाइनेंशियल गारंटी और wheeling losses—ये सारे फैक्टर मिलकर यह निर्णय आर्थिक रूप से भी रिस्की बना देते हैं।
लेकिन सबसे बड़ा रोड़ा है—रेगुलेटरी और टेक्निकल लैंग्वेज की भूलभुलैया। एक मिड-साइज़ कंपनी के लिए यह तय करना ही मुश्किल हो जाता है कि rooftop solar बेहतर है या third-party Open Access?
रेगुलेटरी मामलों की विशेषज्ञ मयूरी सिंह इस उलझन को और गहराई से समझाती हैं:
“कर्नाटक हाईकोर्ट का हालिया फैसला इस पूरी व्यवस्था को और जटिल बना देता है. इस फैसले में यह स्पष्ट किया गया है कि Green Open Access (GEOA) से जुड़े वितरण मामलों पर अधिकार सिर्फ़ राज्य विद्युत आयोगों का है, न कि केंद्र का. इससे न सिर्फ कर्नाटक में नियामकीय शून्यता उत्पन्न हुई है, बल्कि अन्य राज्यों की GEOA नीतियों की वैधता पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है, जो केंद्र के नियमों पर आधारित हैं.”
मयूरी का कहना है कि राज्यों द्वारा eligibility की अलग-अलग शर्तें, अप्रूवल की टाइमलाइन में असंगति, और अतिरिक्त शुल्क—इन सबसे निवेशकों की रुचि कम होती है।
“जब तक नीति और उसके कार्यान्वयन में समरसता नहीं लाई जाती,” मयूरी कहती हैं, “भारत का ग्रीन ट्रांज़िशन असमान और अव्यवस्थित बना रहेगा.”
धुंध के पार—तकनीक का उजाला
Open Access का रास्ता अगर स्पष्ट हो तो बेहद ताक़तवर हो सकता है। लेकिन फिलहाल यह रास्ता ज़्यादातर कंपनियों को धुंधला दिखता है।
यहीं टेक्नोलॉजी का रोल शुरू होता है—इस धुंध को साफ़ करना।
आज कई डिजिटल प्लेटफॉर्म्स उभर रहे हैं जो कंपनियों के बिजली बिल्स को पढ़ते हैं, राज्यों के टैरिफ स्ट्रक्चर और ग्रिड डेटा को प्रोसेस करते हैं, और फिर सलाह देते हैं कि किस कंपनी के लिए कौन-सा ग्रीन मॉडल सबसे मुफ़ीद रहेगा।
टेक्नोलोजी कीभूमिका पर अपनी बात रखते हुए, कर्नाटक स्थित, देश की उभरती रेन्युबल एनर्जी कंपनी Neogreen Power के मैनेजिंग डायरेक्टर के चंद्र प्रकाश इस मुद्दे को तकनीक से ज़्यादा एक मानसिक चुनौती मानते हैं:
“हमारे अनुभव में सबसे बड़ी चुनौती तकनीक नहीं, भरोसे की है. कंपनियों को लगता है कि ग्रीन पावर एक रिस्की निर्णय है—क्योंकि उन्हें पूरी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं लगती. साथ ही, समझ की कमी भी सामने आती है. टेक्नोलॉजी की भूमिका है इस अनदेखे रास्ते को देखा-पहचाना बनाना. हमारा ऐसा मानना है कि टेक्नोलॉजी की अहम भूमिका से ही हम अपने रिन्यूएबल लक्ष्यों को हासिल कर पाएंगे.”
जब डेटा बोले, फैसला आसान होता है
इसी सोच से प्रेरित होकर, Ampera Energy ने AmpeX नाम का प्लेटफॉर्म बनाया है, जो पावर खरीदने की जटिल भाषा को सरल करता है—ताकि निर्णय gut feeling नहीं, data पर आधारित हो।
यह प्लेटफॉर्म किसी भी DISCOM का बिजली बिल पढ़ सकता है, कंपनी के ऊर्जा प्रोफ़ाइल का विश्लेषण कर सकता है, और फिर कंज्यूमर को साफ़-साफ़ दिखाता है कि कौन-सी ग्रीन पावर रणनीति उसके लिए पर्यावरणीय और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से सबसे समझदारी भरी होगी।
Ampera Energy के संस्थापक और CEO प्रभजीत कुमार सरकार मानते हैं:
“भारत का ग्रीन एनर्जी ट्रांज़िशन नीति और विज़न तक सीमित नहीं रह सकता. जब तक इंडस्ट्री के फैसले लेने वाले लोग इसे रोज़मर्रा के निर्णय का हिस्सा नहीं बनाएंगे, तब तक बदलाव अधूरा रहेगा. टेक्नोलॉजी का काम है—confusion को clarity में बदलना.”
नज़र आंकड़ों पर
अगर आपको जानना है कि ग्रीन एनर्जी का ओपन एक्सेस भारत में किस रफ़्तार से बढ़ रहा है, तो ये कुछ अहम आंकड़े हैं जो तस्वीर को साफ़ कर देते हैं:
1. कुल कितनी री-न्यूएबल ओपन एक्सेस कैपेसिटी है?
मार्च 2024 तक भारत में जो कंपनियां सीधे सौर या पवन जैसे स्रोतों से बिजली ले रही हैं (यानि ओपन एक्सेस के ज़रिए), उनकी कुल क्षमता 18.7 गीगावॉट (GW) तक पहुंच गई है।
2. कितना तेज़ बढ़ा है ये बाज़ार?
साल 2023 से 2024 के बीच, ओपन एक्सेस के ज़रिए जो नई क्षमता जोड़ी गई, उसमें 90.4% की ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई। इसका बड़ा क्रेडिट 2022 में आए Green Energy Open Access नियमों को जाता है, जिसने रास्ता साफ किया।
3. सबसे आगे कौन से राज्य हैं?
गुजरात और राजस्थान इस रेस में सबसे आगे हैं — अकेले इन दोनों ने मिलकर 2024 में जितनी नई ओपन एक्सेस क्षमता जुड़ी, उसका लगभग 70% हिस्सा जोड़ दिया।
- गुजरात ने अकेले 1.43 GW जोड़ा
- राजस्थान ने 0.98 GW
4. सोलर ओपन एक्सेस की बात करें तो?
2023 में भारत ने 3.2 GW की रिकॉर्ड सोलर ओपन एक्सेस क्षमता जोड़ी — इसके साथ कुल सोलर ओपन एक्सेस पहुंच गया 12.2 GW पर।
और तो और, सिर्फ 2024 के पहले 6 महीने में ही हमने 3.6 GW जोड़ दिया — पिछली बार की तुलना में 153% ज़्यादा।
5. देश की कुल रिन्यूएबल एनर्जी कितनी हो चुकी है?
मार्च 2024 तक भारत की कुल री-न्यूएबल एनर्जी क्षमता (सोलर, विंड, बायो, छोटे हाइड्रो सब मिलाकर) 143.64 GW पहुंच चुकी है।
अगर सभी तरह की पावर कैपेसिटी की बात करें (कोल, न्यूक्लियर वगैरह सब मिलाकर), तो वो है 441.97 GW।
6. कितनी कंपनियां इसका फायदा उठा रही हैं?
हालांकि कुल कंपनियों की सही गिनती नहीं दी गई है, लेकिन जिस रफ़्तार से क्षमता जुड़ रही है, उससे साफ़ है कि सैकड़ों C&I (कॉमर्शियल और इंडस्ट्रियल) कंज़्यूमर्स अब ओपन एक्सेस मॉडल को अपना रहे हैं — खासकर गुजरात और राजस्थान जैसे औद्योगिक राज्यों में।
क्या मापा गया है | कितना है (FY2024 तक) |
कुल ओपन एक्सेस रीन्यूएबल कैपेसिटी | 18.7 GW |
सालाना बढ़ोतरी (FY23 से FY24) | +90.4% |
सोलर ओपन एक्सेस कैपेसिटी (2023) | 12.2 GW |
सोलर ओपन एक्सेस ऐडिशन (2023) | 3.2 GW |
सोलर ओपन एक्सेस ऐडिशन (2024 के पहले 6 महीने) | 3.6 GW |
टॉप राज्य (FY24 में जोड़ी गई कैपेसिटी) | गुजरात (1.43 GW), राजस्थान (0.98 GW) |
इन दोनों राज्यों का हिस्सा | ~70% |
कुल री-न्यूएबल कैपेसिटी (सभी स्रोत मिलाकर) | 143.64 GW |
कुल बिजली उत्पादन क्षमता (सभी स्रोत मिलाकर) | 441.97 GW |
ओपन एक्सेस का मार्केट तेज़ी से उभर रहा है। कंपनियों को अब सरकारी झंझटों से थोड़ा छुटकारा मिल रहा है और वे सीधे री-न्यूएबल सोर्सेज से बिजली खरीद पा रही हैं। ये ट्रेंड न सिर्फ ग्रीन ग्रोथ को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि भारत के क्लाइमेट टारगेट्स को भी थोड़ा और नज़दीक ला रहा है।
आखिर में…
एक बात अब साफ़ होती जा रही है: ग्रीन एनर्जी की रेस में जीत तकनीक तय करेगी।
भारत नीति के पायदान पर तो चढ़ चुका है, लेकिन असल चुनौती है—उस राह को भरोसेमंद और व्यावहारिक बनाना।
टेक्नोलॉजी एक पुल है—नीति और ज़मीन के बीच। और जैसे हर पुल की मज़बूती उसके दोनों सिरों पर निर्भर करती है, वैसे ही Open Access की सफलता भी इस पर टिकी है कि राज्य की नीति स्पष्ट हो और उद्योग का भरोसा ज़िंदा।
AmpeX जैसे टूल्स इस पुल की एक ईंट भर हैं। ज़रूरी नहीं कि ये final answer हों, लेकिन इतना ज़रूर है कि ये उस दिशा में सोचने की प्रेरणा दे सकते हैं।
अगर भारत का औद्योगिक क्षेत्र सूरज की ओर मुड़ जाए, तो बिजली का स्रोत ही नहीं बदलेगा—अर्थव्यवस्था की आत्मा बदल जाएगी।
हर फ़ैक्ट्री जो अपने बिल को डेटा में बदले, हर sustainability officer जो जटिलताओं से न डरे, और हर नीति जो प्रक्रिया को इंसानी बनाए—वो मिलकर एक नई क्लाइमेट कहानी लिखते हैं।
और ये कहानी किसी full stop पर नहीं रुकती। इसका हर चैप्टर बस एक वाक्य से शुरू होता है:
“हम बदल सकते हैं—अगर समझ आए कैसे।”