अब समय है स्वीकारने का कि जलवायु परिवर्तन हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी पर दिखा रहा है असर, ग्लोबल वार्मिंग भारत में मानसून की बारिश को उम्मीद से कहीं ज्यादा बढ़ा रहा है
भारत के पश्चिमी तटीय राज्यों महाराष्ट्र और गोवा के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में चरम मौसम की घटनाओं का एक सिलसिला देखा गया है। घातक बाढ़, क्लाउड बर्सट (बादल फटने) और लैंडस्लाइड (भूस्खलन) के कारण सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं।
पश्चिमी तट के कुछ हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ बारिश की सूचना के साथ, 22 जुलाई से अब तक हजारों लोगों को इवेक्युएट किया गया है। रिलीफ़ एंड रीहैबिटीलेशन डिपार्टमेंट (सहायता एवं पुनर्वास विभाग) – महाराष्ट्र के अनुसार, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से लगभग 229,074 लोगों को इवेक्युएट किया गया है। 26 जुलाई तक कुल 164 मौतें रिपोर्ट की गई हैं और 25,564 जानवरों की मौत हुई है। 56 लोग घायल हुए थे और 100 अभी भी लापता हैं। कुल 1028 गांव प्रभावित हुए हैं, जिनमें से रायगढ़ ज़िला सबसे ज्यादा बुरी तरह से प्रभावित है, और इसके बाद रत्नागिरी और सतारा ज़िले ।
इस बीच, हिमाचल प्रदेश ने 25 जुलाई को भूस्खलन की सूचना दी, जिसमें 9 की मौत हुई और कई घायल हुए। उत्तराखंड में महीने की शुरुआत से लगातार भूस्खलन की खबरें आ रही हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है कि हम स्वीकार करें कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी पर दिखाई दे रहा है। ग्लोबल वार्मिंग तीव्र होने के साथ, भारतीय मानसून का मौसम अस्थिर हो गया है। वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ मॉनसून की बारिश और बढ़ेगी।
AVM (एवीएम) जी.पी. शर्मा, अध्यक्ष – मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा, “सीज़न के आधे ख़त्म होने से भी पहले हमने अभी ही मौसमी वर्षा लक्ष्य हासिल कर लिया है। जलवायु परिवर्तन इस समय की वास्तविकता है। मौसम की संवेदनशीलता बढ़ रही है, चाहे वह क्लाउड बर्स्ट की तीव्रता या आवृत्ति हो, भूस्खलन, भारी वर्षा, चक्रवात या अन्य घटना। मानसून अस्थिर हो गया है और हम मानसून के मौसम के पैटर्न में, जिसे कभी सबसे स्थिर माना जाता था, एक बड़ा परिवर्तन देख रहे हैं। यह अब मौसम विशेषज्ञों का डोमेन नहीं है और इसके लिए मल्टीडिसिपलीनरी (बहु-विषयक) या मल्टी-स्पेशियलिटी (बहु-विशिष्ट) फ़ोकस की आवश्यकता है, जिसे सभी हितधारकों के बीच एकीकरण की आवश्यकता है।”
आगे, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, ‘जलवायु परिवर्तन भारतीय मानसून के मौसम को और ज़्यादा गड़बड़ बना रहा है‘, हर डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के लिए, मानसून की वर्षा में लगभग 5% की वृद्धि होने की संभावना है। ग्लोबल वार्मिंग भारत में मानसून की बारिश को पहले जो सोचा गया था उस से कहीं ज्यादा बढ़ा रही है। यह 21वीं सदी के मानसून की डायनैमिक्स (क्रियाशील) पर हावी है। जलवायु परिवर्तन अप्रत्याशित मौसम चरम सीमाओं और उनके गंभीर परिणामों की ओर ले जा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप की सामाजिक-आर्थिक भलाई वास्तव में लाइन पर (ख़तरे में) है। एक ज़्यादा गड़बड़ मानसून का मौसम क्षेत्र में कृषि और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन गया है और नीति निर्माताओं के लिए दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारी कटौती करने के लिए एक वेक उप कॉल (जगाने की पुकार) होना चाहिए।
महेश पलावत, उपाध्यक्ष – मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा, “चार महीने लंबे दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम के लिए जुलाई सबसे ज़्यादा बारिश वाला महीना है। देश भर में ज़ोरदार मॉनसून की स्थिति के साथ, हम पूरे महाराष्ट्र में भारी बारिश की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन इस चरम मौसम की श्रृंखला की उम्मीद नहीं की गयी थी। इसमें कोई शक नहीं कि हम जलवायु परिवर्तन की चपेट में हैं और परिणाम हमारे सामने हैं। वनों की कटाई और तेज़ी से शहरीकरण के साथ पश्चिमी घाट की नाज़ुक प्रकृति के कारण भूस्खलन और बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। वायुमंडल के गर्म होने से हवा की नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है, जिससे तीव्र क्यूम्यलोनिम्बस बादल या लंबवत रूप से विकसित बादल बनते हैं, जिससे इस क्षेत्र में लगातार भारी बारिश होती रहती है। इसके अलावा, जब वातावरण अस्थिर होता है, तो ये बादल बार बार बनते रहते हैं और यह बादल के बनने की एक श्रृंखला में बदल जाता है जिससे लगातार वर्षा होती है।”
हिमालयी क्षेत्र में मौसम के पैटर्न के बारे में बात करते हुए, पलावत ने आगे कहा, “पहाड़ी क्षेत्र में मौसम अधिक संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि पहाड़ मौसम के प्रति अधिक तेज़ी से प्रतिक्रिया करते हैं। जैसा कि पहले दोहराया गया है, तेज़ ऊपरी हवा के अभाव में क्यूम्यलोनिम्बस बादलों के बनने पर, वे बहुत लंबी यात्रा करने की प्रवृत्ति नहीं रखते हैं या हम कह सकते हैं कि वे फंस जाते हैं। ये बादल तब एक निश्चित क्षेत्र में सारा पानी छोड़ देते हैं, जिसे क्लाउड बर्स्ट (बादल फटना) कहते हैं। वनों की कटाई और हाइड्रोपावर (जलविद्युत) संयंत्रों, सड़कों, होटलों या घरों के निरंतर निर्माण से मिट्टी अस्थिर (ढीली) हो गयी है, जिसके परिणामस्वरूप थोड़ी ही बारिश होने से भी बार-बार भूस्खलन होते हैं। साथ ही, हमारी हिमालय पर्वतमाला पारिस्थितिक रूप से भुरभुरी है, जलवायु परिवर्तन का बहुत कम प्रभाव भी पहाड़ी इलाक़ों में घातक घटनाओं का कारण बन सकता है।”
IPCC के पांचवें आकलन रिपोर्ट चक्र में यह निष्कर्ष निकाला गया कि जलवायु प्रणाली पर मानव प्रभाव “स्पष्ट” है। तब से, एट्रिब्यूशन पर साहित्य – जलवायु विज्ञान का उप-क्षेत्र जो देखता है कि कैसे (और कितना) मानव गतिविधियों से जलवायु परिवर्तन होता है – का काफी विस्तार हुआ है। आज, वैज्ञानिक पहले से कहीं ज़्यादा निश्चित हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारे कारण होता है। हाल के एक अध्ययन में पाया गया है कि पूर्व-औद्योगिक काल से सभी वार्मिंग का कारण मानव हैं, जिससे इस बहस के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती है कि जलवायु क्यों बदल रहा है। AR5 के बाद से, क्षेत्रीय प्रभावों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है, वैज्ञानिकों द्वारा उनके मॉडलों में सुधार और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव क्षेत्रीय स्तर पर किसे दिखेंगे इसकी समझ में सुधार के साथ।
जलवायु लचीलेपन के निर्माण के बग़ैर निष्क्रियता की लागत अधिक है
अगर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन अनियंत्रित चलता रहे तो भारत, एक अरब से अधिक आबादी के साथ दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, गंभीर परिणाम भुगतने की कगार पर है। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, इन आपदाओं की आर्थिक लागत विकासशील अर्थव्यवस्था पर और भी बोझ डाल रही है। विभिन्न अध्ययनों की ख़ूब अत्यधिक गीले वर्षों की भविष्यवाणी के साथ, लोगों की भलाई, अर्थव्यवस्था, कृषि और खाद्य प्रणाली पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और अन्य संबंधित हितधारकों के समुदायों के बीच ग्राउंड लेवल (ज़मीनी स्तर) पर समुदायों को शामिल करते हुए कई चरणों में कार्य योजनाओं को विकसित करने और लागू करने के लिए सहमति बनी है। “हम न केवल भारत में बल्कि यूरोप और चीन के कुछ हिस्सों में भी इन चरम मौसम की घटनाओं का अनुभव कर रहे हैं। हम चीन और जर्मनी में तबाही की भयावह तस्वीरें देखते रहे हैं, जो दर्शाती हैं कि जलवायु परिवर्तन यहीं और अभी है। यह अब केवल एक विकासशील देश की समस्या नहीं है, बल्कि यह अब जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड जैसे औद्योगिक देशों को भी अपनी चपेट में ले रही है। IPCC के वैज्ञानिक पिछले कुछ सालों से इन मुद्दों को लेकर आगाह कर रहे हैं। महासागरों और क्रायोस्फीयर पर नवीनतम IPCC रिपोर्ट (SROCC) हमें इस बात का विस्तृत विवरण देती है कि कैसे ग्लोबल वार्मिंग से महासागरों का ताप बढ़ रहा है और कैसे मानसून के पैटर्न तेज़ी से बदल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की मानसून प्रणाली में भारी बदलाव आया है। (आपके पास) या तो लंबे समय तक सूखा पड़ता है या भारी बारिश होती है। यह नयी सामान्य स्थिति होने जा रहा है। भारतीय शहरों, कस्बों और गांवों को एडाप्टेशन के लिए तत्काल योजनाओं की आवश्यकता है। जलवायु के प्रति एक लचीला बुनियादी ढांचे और जोखिम प्रबंधन योजनाओं के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि ये बढ़ती चरम घटनाएं जीवन के साथ-साथ हमारी अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करेंगी। दूसरे, भारत को वैश्विक दक्षिण में हरित विकास मॉडल की ओर देशों को प्ररित करने और और ग्रह का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का नेतृत्व करना चाहिए। लोगों, लाभ और ग्रह के बीच संतुलन बनाना संभव है,” डॉ अंजल प्रकाश, अनुसंधान निदेशक और सहायक एसोसिएट प्रोफेसर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और IPCC की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में प्रमुख लेखक, ने कहा।