हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक शोध लेख ने भारत में प्रस्तावित रिवर इंटरलिंकिंग परियोजनाओं के मानसून पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडलिंग का प्रयोग करते हुए पाया कि गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी और गोदावरी जैसी प्रमुख नदियों के जल के अंतर्बेसिन हस्तांतरण या इंटर बेसिन एक्सचेंज से उत्तर-मध्य भारत में मिट्टी की नमी में कमी आ सकती है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इस तरह की नमी की कमी से मानसून के दौरान भूमि और वायुमंडल के बीच कपलिंग प्रभावित होगी, जिससे मानसूनी वर्षा के पैटर्न में बदलाव आएगा। उत्तर और मध्य भारत में वर्षा कम हो सकती है, जबकि दक्षिण भारत में वृद्धि हो सकती है। ऐसा मानसून के स्थानिक वितरण को प्रभावित करेगा।
दरअसल जिस हिसाब से भारत में आबादी बढ़ रही है, उसके चलते सरकार ने बढ़ती आबादी की पानी की मांग को पूरा करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक पानी वाले भूमिगत वाटर बेसिनों से अपेक्षाकृत कम पानी वाले बेसिनों में पानी स्थानांतरित करने के लिए रिवर इंटेर्लिंकिंग परियोजनाएँ बनाने का इरादा किया है।
लेकिन इस हैरान करने वाले शोध से पता चला है कि रिवर इंटरलिंकिंग परियोजना भूमि और वायुमंडल के बीच परस्पर क्रिया को बाधित कर सकती हैं और हवा में नमी की मात्रा और हवा के पैटर्न को भी प्रभावित कर सकती हैं, जिसके चलते पूरे देश में बरसात के पैटर्न में बदलाव आ सकता है।
शोधकर्ताओं का सुझाव है कि इतने बड़े पैमाने पर नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप से पहले इन परियोजनाओं के संभावित जलवायु प्रभावों का विस्तृत अध्ययन जरूरी है। मानसून में कोई भी परिवर्तन भारत के कृषि उत्पादन और जल संसाधनों को प्रभावित कर सकता है। इसलिए सरकार को नदी अंतर्जोड़न जैसी परियोजनाओं पर ज्यादा सावधानी बरतने की ज़रूरत है।
यह शोध भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे (आईआईटी-बी), भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम), पुणे और ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब के विश्वविद्यालयों द्वारा भारत में रिवर इंटरलिंकिंग परियोजनाओं पर किया गया है।
कुछ दिन पहले ही में ‘नेचर कम्युनिकेशंस’ में प्रकाशित इस अध्ययन कि मानें तो इसके चलते भारत के कुछ शुष्क क्षेत्रों में सितंबर के दौरान औसत वर्षा में 12% तक की संभावित कमी दर्ज की जा सकती है। यह वो क्षेत्र हैं जो पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रहे हैं।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आईआईटी-बी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के शोधकर्ता सुबिमल घोष कहते हैं, “ऐसे जल प्रबंधन निर्णय अगर जल चक्र के पूरे सिस्टम दृष्टिकोण, विशेष रूप से भूमि से वायुमंडल और मानसून तक फीडबैक प्रक्रियाओं पर विचार करते हुए लिए जाते हैं, तो रिवर इंटरलिंकिंग जैसी बड़े पैमाने की हाइड्रोलॉजिकल परियोजनाओं से अधिकतम लाभ मिलेगा।” इसी क्रम में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च, आईआईटीएम से रॉक्सी मैथ्यू कोल बताते हैं, “दीर्घकालिक डेटा की एनालिसिस से पता चलता है कि कुछ नदी घाटियों में मानसूनी वर्षा पैट्रन में बदलाव हुआ है – विशेष रूप से मानसूनी वर्षा की कुल मात्रा में कमी और लंबी शुष्क अवधि की ओर रुझान दिखाई दिया है। इसके चलते यह बेहद ज़रूरी है कि किसी भी नदी जोड़ने की परियोजना से पहले उसका पूरा मूल्यांकन किया जाए।” वो आगे कहते हैं, “साथ ही, वर्षा में कमी के चलते मानसून के बाद एक पानी देने वाले बेसिन की दूसरे कम पानी वाले बेसिनों में पानी भेजने की क्षमता भी कम हो सकती है। इसलिए, हमारा सुझाव है कि रिवर इंटरलिंकिंग के फैसलों से पहले भूमि-वायुमंडल प्रतिक्रिया के प्रभावों को समझा जाए, फैसले का पुनर्मूल्यांकन किया जाए क्योंकि आपस में जुड़े नदी बेसिनों में जल संतुलन की काफी आवश्यकता है।” ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर क्लाइमेट एक्सट्रीम, यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स, सिडनी की अंजना देवानंद कहती हैं कि दुनिया भर के नदी बेसिनों की तरह, भारतीय नदी बेसिन भी वैश्विक और जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर तनाव में थे। “जून से सितंबर तक भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून नदी घाटियों में पानी का प्राथमिक स्रोत है, जो देश की वार्षिक वर्षा का लगभग 80% है और सकल घरेलू उत्पाद को नियंत्रित करता है। पिछले कुछ दशकों में, भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून ने औसत वर्षा में गिरावट का अनुभव किया है। वर्षा की तीव्रता, घटनाओं और स्थानिक परिवर्तनशीलता में वृद्धि हुई है। इस तरह के बदलते मौसम संबंधी पैटर्न ने हाइड्रोलॉजिकल चरम, बाढ़ और सूखे को बढ़ा दिया है।”