रिन्युब्ल ऊर्जा क्षमता सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए रिन्युब्ल ऊर्जा उत्पादन क्षमता में हर साल औसतन 2.5 गीगावॉट की वृद्धि ज़रूरी
रिन्युब्ल ऊर्जा क्षमता सम्बन्धी लक्ष्यों को जमीन पर उतारने के मामले में उत्तर प्रदेश अधिक ऊर्जा आवश्यकता वाले अन्य राज्यों के मुकाबले पिछड़ा हुआ है।
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) और एनर्जी थिंक टैंक एम्बर की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश को पटरी पर लाने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है। ऐसा करना ना सिर्फ उसके अपने लक्ष्यों को हासिल करने बल्कि वर्ष 2022 तक 175 गीगावॉट तथा 2030 तक 500 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन के भारत के लक्ष्य की रफ्तार में कमी नहीं आने देने के लिए भी जरूरी है।
अक्टूबर 2021 तक उत्तर प्रदेश में सिर्फ 4.3 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता ही स्थापित हो पाई थी। यह वर्ष 2022 तक कुल 14.1 गीगावॉट उत्पादन क्षमता को जमीन पर उतारने के लक्ष्य का मात्र 30% ही है।
अगर तुलना करें तो बिजली की ज्यादा मांग वाले अन्य राज्य वर्ष 2022 तक के अपने अक्षय ऊर्जा संबंधी लक्ष्यों के मामले में उत्तर प्रदेश से काफी आगे चल रहे हैं। गुजरात और राजस्थान ने क्रमशः 85% और 86% लक्ष्य हासिल कर लिया है जबकि तमिलनाडु 72%, महाराष्ट्र 47% और मध्य प्रदेश अपने लक्ष्य का 45% हासिल कर चुके हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश अपने साथी राज्यों के मुकाबले वर्ष 2022 के सौर ऊर्जा उत्पादन 10.7 गीगा वाट के लक्ष्य को हासिल करने के मामले में पीछे है। हालांकि उत्तर प्रदेश का लक्ष्य भारत के सभी राज्यों में दूसरा सबसे बड़ा लक्ष्य है। उत्तर प्रदेश अभी तक अपने लक्ष्य का मात्र 19% यानी केवल 2 गीगावॉट उत्पादन क्षमता ही स्थापित कर पाया है।
इस रिपोर्ट के सह लेखक और एम्बर में वरिष्ठ विद्युत नीति विश्लेषक आदित्य लोल्ला ने कहा “अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सौर ऊर्जा क्षमता की स्थापना के मामले में उत्तर प्रदेश को अभी बहुत कुछ करना बाकी है।”
पूरे देश में बिजली की मांग में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 10% है। इस मामले में वह महाराष्ट्र के बाद दूसरी पायदान पर है। पिछले एक दशक के दौरान उत्तर प्रदेश में बिजली की मांग लगभग दो तिहाई तक बढ़ी है और पीक डिमांड तो दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। वर्ष 2030 तक बिजली उत्पादन के बढ़कर 47 टेरावाट तक पहुंच जाने का अनुमान है।
लोल्ला ने कहा “अभी तक उत्तर प्रदेश ने कोयले से बनने वाली बिजली के उत्पादन को विस्तार देकर अपनी मांग में हुई मजबूत बढ़ोत्तरी के ज्यादातर हिस्से को पूरा किया है। अगर वर्ष 2030 तक उसे 23.6 गीगावाट उत्पादन के अपने लक्ष्य को हासिल करना है तो सौर ऊर्जा भविष्य में बिजली की मांग के एक बड़े हिस्से को पूरा कर सकती है।”
उन्होंने कहा कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में हर साल औसतन 2.5 गीगावॉट की वृद्धि करनी होगी।
लोल्ला और रिपोर्ट के सह लेखक एवं आईईईएफए के ऊर्जा वित्त विश्लेषक कशिश शाह ने कहा कि उत्तर प्रदेश इस वक्त एक चौराहे पर खड़ा है, जहां भविष्य की अपनी ऊर्जा संबंधी मांग में वृद्धि की पूर्ति के लिए वह जो रास्ता चलेगा उससे भारत की डीकार्बनाइजेशन की रफ्तार या तो तेज हो जाएगी या फिर धीमी पड़ जाएगी।
शाह ने कहा कि वर्ष 2030 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने से उत्तर प्रदेश को अपने निर्माणाधीन कोयला बिजली घरों से इतर नए कोयला आधारित बिजली घरों के निर्माण में अपने संसाधन फंसाने की मजबूरी से छुटकारा मिलेगा।
उन्होंने कहा “नए कोयला बिजलीघर बनाना अब तेजी से अव्यावहारिक होता जा रहा है। कोयला बिजली परियोजनाओं के लिए पूंजी संसाधन कम हो रहे हैं। राज्य सरकार के स्वामित्व वाले गैर बैंकिंग वित्त पोषण कर्ताओं यानी पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन (पीएफसी) और रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉरपोरेशन (आरईसी) को छोड़कर कोई भी निवेशक अब भारत में कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए धन नहीं देना चाहता।”
शाह ने कहा कि इसके अलावा कोयला बिजली घरों की उपयोगिता भी गिरती जा रही है। पिछले पांच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश की 23.7 गीगावॉट कोयला बिजली उत्पादन का प्लांट लोड फैक्टर 68% से गिरकर 61% हो गया है और कोयले पर भारी निर्भरता की वजह से अब पूरी ऊर्जा प्रणाली पर भारी गड़बड़ी का खतरा मंडराने लगा है।
उन्होंने कहा “अक्टूबर 2021 में भारत में कोयले की किल्लत की वजह से सरकार को खुले बाजार से 22 रुपये प्रति यूनिट
की बेहद महंगी दर पर बिजली खरीदनी पड़ी थी।”
इस रिपोर्ट में सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने की राह में खड़ी विभिन्न बाधाओं का जिक्र किया गया है जिन्हें फौरन हल करने की जरूरत है। इन रुकावटों में हाल के वर्षों में राज्य विद्युत वितरण कंपनियों द्वारा अक्षय ऊर्जा विद्युत खरीद समझौतों को निरस्त किया जाना और वितरण कंपनियों को होने वाले तकनीकी और वित्तीय नुकसान के 30% से अधिक हो जाना भी शामिल है।
खर्चीली और गैर भरोसेमंद कोयला बिजली के उत्पादन से विद्युत वितरण कंपनियों की वित्तीय व्यवस्था पर जबरदस्त दबाव पड़ा है। वित्तीय वर्ष 2019-20 में उत्तर प्रदेश की बिजली वितरण कंपनियों को 10120 करोड़ रुपए (1.36 बिलियन डॉलर) की टैरिफ सब्सिडी मिलने के बावजूद 4917 करोड़ रुपए (660 मिलियन डॉलर) का नुकसान हुआ।
इस रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की बिजली वितरण कंपनियों के वित्तीय और संचालनात्मक प्रदर्शन में सुधार के लिए अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि प्रदेश के बिजली सेक्टर में सुधार के लिए इन सिफारिशों को लागू करना बहुत जरूरी है।
· कोयले से चलने वाले पुराने बिजली संयंत्रों को चलन से बाहर कर बिजली खरीद की लागतों में कमी लाई जाए। पुराने बिजली संयंत्र में नए प्लांट के मुकाबले प्रति किलोवाट अधिक कोयला खर्च होता है। साथ ही इनसे ज्यादा प्रदूषण भी फैलता है। महंगी पड़ने वाली थर्मल बिजली के स्थान पर सस्ती अक्षय ऊर्जा को लाया जाए। इसके अलावा ग्रिड हानि को कम करने में वितरण कंपनियों की मदद के लिए वितरित सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाए।
· खुले बाजार का फायदा लें। अक्षय ऊर्जा की मदद से बिजली वितरण कंपनियां पीक डिमांड और ग्रिड वेरिएबिलिटी को बेहतर ढंग से संभाल सकती हैं। वे पावर एक्सचेंज या अल्पकालिक द्विपक्षीय अनुबंधों जैसे खुले बाजार मंचों पर डे-अहेड, टर्म अहेड और रियल टाइम बाजारों से बिजली खरीद कर ऐसा कर सकती हैं।
· क्रॉस सब्सिडी को कम करके और उपभोक्ताओं को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए सब्सिडी देने की व्यवस्था में सुधार करके सब्सिडी के भार को कम किया जाए।
· ग्रिड की प्रौद्योगिकीय उन्नयन और आधुनिकीकरण पर निवेश किया जाए। बिजली वितरण कंपनियों के कमजोर प्रदर्शन को ठीक करने के लिए 11 लाख स्मार्ट मीटर लगाया जाना और ओपन एक्सेस व्हीलिंग शुल्क में कटौती किया जाना प्रगतिशील कदम हैं।