आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट इस बात की गवाही देती है कि दुनिया प्रदूषण उत्सर्जन न्यूनीकरण के लक्ष्यों को हासिल कर पाने की राह पर नहीं है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिये जरूरी है कि प्रयासों को दोगुना किया जाए और नुकसान को जहां तक हो सके, कम किया जाए।
नवरोज़ के दुबाष
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनिया गुटेरेस ने जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की नयी रिपोर्ट पेश करते वक्त एक चेतावनी भरा वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि “दुनिया नींद में एक जलवायु प्रेरित तबाही की तरफ बढ़ती जा रही है।’’ समाधान पर आधारित इस रिपोर्ट में जलवायु संकट के विज्ञान और उसके प्रभावों के बारे में पूर्व में जारी रिपोर्टों से भी तथ्य लिये गये हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की जाती है, मगर 195 सरकारें उनकी समीक्षा के साथ-साथ अनुमोदन भी करती हैं। यह एक श्रमसाध्य और परत-दर-परत प्रक्रिया है जो इसी हफ्ते सम्पन्न हुई है।
तो जलवायु संकट आखिर है कितना बुरा? वर्ष 2010-2019 इतिहास का ऐसा दशक साबित हुआ जब दुनिया में प्रदूषणकारी तत्वों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन हुआ। हालांकि इसकी रफ्तार कम है और विभिन्न क्षेत्रों और सेक्टरों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में गहन और फौरी गिरावट नहीं लायी गयी तो वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य पहुंच से बाहर हो जाएगा।
क्या यह कयामत के दिन का पैगाम है? नहीं, मगर यह हमारे आंखें खोलने वाला है कि आखिर कैसे हमें सामने खडी चुनौतियों के बारे में सोचने के अपने नजरिये में बारीकी से बदलाव करना चाहिये। डेढ़ या 2 डिग्री सेल्सियस पर ध्यान देने के बजाय यह ज्यादा उपयोगी होगा कि हम ऐसे रास्ते तलाशें जिनसे वार्मिंग को जहां तक सम्भव हो सके जल्द से जल्द कम किया जा सके। उदाहरण के तौर पर 1.5 डिग्री सेल्सियस 1.6 डिग्री से बेहतर है। उसी तरह 1.6 डिग्री, 1.7 डिग्री सेल्सियस से बेहतर है। इसी तरह यह सिलसिला आगे चलाया जा सकता है। ऐसा करने के लिये वर्ष 2030 से पहले वैश्विक स्तर पर 27-43 डिग्री सेल्सियस के बीच गहरी गिरावट लानी पड़ेगी ताकि ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि को 1.5-2 सेल्सियस तक सीमित किया जा सके। इसके अलावा भविष्य के ऐसे नेट जीरो लक्ष्य भी तय किये जाने चाहिये, जो सुर्खियां बनें।
लिहाजा, रिपोर्ट के ज्यादातर हिस्से में प्रगति के संकेतों और भविष्य के समाधानों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसमें ऊर्जा, जमीन, निर्माण, परिवहन तथा मांग सम्बन्धी नीतिगत विकल्पों की एक व्यापक श्रंखला दी गयी है, ताकि उत्सर्जन को वर्ष 2030 तक 20 डॉलर प्रति टन कार्बन डाई ऑक्साइड इक्वेलेंट (टीसीओ2ई) तक कम किया जा सके। या फिर शुद्ध लाभ के साथ भी और 100 डॉलर प्रति टीसीओ2ई के तहत 25 प्रतिशत की अतिरिक्त कटौती की जा सके। साथ ही साथ प्रमुख प्रौद्योगिकियों, जैसे कि सौर ऊर्जा और बैटरियों की कीमतों में 2010 से अब तक 85 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है। वहीं, वायु बिजली की लागत भी 55 प्रतिशत तक कम हुई है।
इन मौकों का फायदा उठाया जा रहा है और इसके सुबूत भी हैं। दुनिया भर में अनेक अन्य नीतियां भी लागू की जा रही है। इस बात के सुबूतों की संख्या लगातार बढ़ रही है कि इन नीतियों से ऊर्जा दक्षता बढ़ रही है, वनों का कटान कम हो रहा है और अक्षय ऊर्जा क्षमता को ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में इस्तेमाल बढ़ रहा है। वर्ष 2020 तक दुनिया के 56 देशों में उत्सर्जन का 53 प्रतिशत हिस्सा जलवायु को समर्पित कानूनों के दायरे में लाया जाता था। वहीं ऊर्जा दक्षता तथा भू-उपयोग जैसे 690 कानून प्रदूषण उत्सर्जन पर अप्रत्यक्ष रूप से अंकुश लगाते थे। कम से कम एक अध्ययन से यह पता चलता है कि इन सभी कानूनों और नीतियों का प्रभाव ऐसा है कि उनसे एक साल में उत्सर्जन में करीब 10 प्रतिशत की कमी लायी जा सकती है।
रिपोर्ट और आगे बढ़कर यह आग्रह करती है कि सभी देशों को, चाहे वे अमीर हों या गरीब, अपने विकास के रास्तों को सततता की तरफ मोड़ने के बारे में सोचना चाहिये। इसका यह मतलब है कि व्यापक आर्थिक और सामाजिक स्थानांतरण जलवायु न्यूनीकरण के परिणाम हासिल करने के लिये उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने कि निम्न-कार्बन प्रौद्योगिकियां।
इस हिसाब से देखें तो नगरों की भविष्य की योजनाओं को जलवायु सम्बन्धी निर्णयों के चश्मे से भी देखा जा रहा है क्योंकि ऐसे फैसलों के जरिये नगरों के अंदरूनी हिस्सों को कारोबार और जीवन दोनों के ही लिये अधिक सुविधाजनक बनाया जा सकता है। इससे परिवहन लागतों के साथ-साथ प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में भी कमी लायी जाती है। रोजगार सृजन की रणनीतियों में भविष्य के उद्योगों को भी शामिल किया जा सकता है, जिनमें से कई में निम्न-कार्बन विकल्प शामिल हैं। तेजी से विकसित हो रहे देशों के लिये भविष्य की जलवायु से सम्बन्धित सरोकारों को भी खासतौर पर नीतियों का अभिन्न अंग बनाना महत्वपूर्ण है, ताकि आगे चलकर उच्च कार्बन वाले उपायों पर अटकने वाली स्थितियों को टाला जा सके।
तस्वीर का दूसरा पहलू भी सच है। उत्सर्जन में ज्यादा कटौती नहीं हुई तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव विकास की दिशा में हुई प्रगति का मूल्य कम कर देंगे। दूसरे शब्दों में मुख्यधारा के विकास निर्णय दरअसल जलवायु सम्बन्धी फैसले भी होते हैं। इस तरह से जलवायु संकट और विकास के बीच संबंधों के बारे में सोचने से कई और निम्न कार्बन मार्ग खुलते हैं जो सामाजिक रूप से सकारात्मक परिणाम भी देते हैं।
यहां कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि इस दृष्टिकोण को लागू करना आसान या सीधी सी बात है। दरअसल, इनमें से हरेक को अलग-अलग लेने की तुलना में इन परस्पर जुड़ी समस्याओं पर विचार करना यकीनन ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। मगर यह भी कहना ठीक है कि जलवायु संकट की प्रकृति को देखते हुए अब यह भी जरूरी हो गया है।
रिपोर्ट में कम से कम दो अतिरिक्त कारकों को रेखांकित किया गया है जिन्हें इस रास्ते को अपनाने से पहले हल करने की जरूरत है। पहला, जहां विकास निर्णयों में जलवायु संकट को आंतरिक करने से भविष्य में बड़े लाभ मिल सकते हैं, इसके लिए पर्याप्त अग्रिम निवेश लागत की भी आवश्यकता हो सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्तीय प्रवाह वर्तमान में 2030 तक अनुमानित जरूरतों की तुलना में 3-6 गुना कम है। हालांकि यह अनुपात दुनिया के कुछ हिस्सों में विशेष रूप से विकासशील क्षेत्रों में बहुत ज्यादा है।
दूसरा, सरकारों को ये जटिल रूपांतरण सम्भालने के लिये अपनी क्षमता का निर्माण करने की जरूरत है। निम्न-कार्बन अवसरों के माध्यम से रणनीतिक रूप से सोचने के लिए, कई क्षेत्रों और पैमानों पर समन्वय स्थापित करने और जोखिम से घिरी आबादी पर विघटनकारी परिवर्तनों के प्रभावों को सीमित करने के लिए जलवायु के लिहाज से तैयार एक राज्य के निर्माण की जरूरत होती है।
आखिरकार, यह रिपोर्ट इस बात को बिल्कुल साफ करती है कि विकास रूपांतरण के रास्ते हर देशों के हिसाब से अलग-अलग होने जा रहे हैं और समस्या का कोई सार्वभौमिक समाधान नहीं है। हालांकि, यह रिपोर्ट वे सारी चीजें प्रदान करती है जिनका उपयोग देशों में नीति निर्माता संदर्भ-विशिष्ट तरीकों को आगे बढ़ाने के लिए कर सकते हैं। जैसे कि रूपरेखाएं, संस्थान, नीतियां और प्रौद्योगिकियां।
दुनिया जलवायु परिवर्तन को लेकर अंतरराष्ट्रीय संवाद प्रक्रिया के तहत तय किये गये उत्सर्जन न्यूनीकरण के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में निश्चित रूप से आगे नहीं बढ़ रही है। मगर उसे न्यूनीकरण के प्रयासों को आईपीसीसी के आकलन के अनुरूप फिर से दोगुना करना चाहिये ताकि नुकसान को जहां तक हो सके, कम किया जा सके।
नवरोज के दुबाष सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में प्रोफेसर हैं। वह आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप 3 के लिये कोऑर्डिनेटिंग लीड ऑथर और समरी फॉर पॉलिसीमेकर्स के सह-लेखक हैं।
ये उनके निजी विचार हैं।