इस साल प्री-मानसून मौसम की सरगर्मियां काफी पहले शुरू हो गई हैं। मार्च के पहले सप्ताह में ही बारिश और गरज चमक के साथ बौछारें दस्तक देने लगी हैं। इस शुरुआती दौर में 6-8 मार्च के बीच होने वाली गैर मौसम की बारिश और गरज चमक ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के काफी हिस्सों में फसल को नुकसान पहुंचाया। तेज हवाओं और ओलावृष्टि से फसल बर्बाद हो गई, जिससे नुकसान की भरपाई नहीं हो सकी।
अब, हमारा मुल्क गरज चमक, ओलावृष्टि और बिजली गिरने के साथ-साथ प्री-मानसून बारिश और गरज के साथ बौछारों के एक और लंबे दौर के लिए तैयार है। इसके साथ, हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में खड़ी फसल पर फसल के नुकसान का खतरा बढ़ रहा है।
आने वाला समय
आने वाला समय कई मौसम प्रणालियों के बीच आपसी तालमेल का नतीजा होगा। जलवायु मॉडल के मुताबिक़ पूर्वी मध्य प्रदेश और तेलंगाना तथा इससे सटे हुए उत्तरी आंध्र प्रदेश में दोहरे चक्रवाती हवाओं के क्षेत्र बनने की संभावना है। इन दोनों प्रणालियों के बीच एक गर्त बनने का अनुमान है। अरब सागर के साथ-साथ दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी से आने वाली नमी की वजह से दोनों प्रणालियां और ज़्यादा चिह्नित हो जाएंगी। इसके अलावा उसी समय के दौरान एक सक्रिय पश्चिमी विक्षोभ पश्चिमी हिमालय से गुजरेगा।
ये तमाम प्रणालियाँ मिलकर 13-18 मार्च के बीच मुल्क के मध्य, पूर्वी और दक्षिणी इलाक़ों में मौसम में व्यापक सरगर्मियों को बढ़ावा देंगी। जबकि उत्तर के मैदानी इलाक़े ज्यादातर खतरनाक सरगर्मी से बचे रहेंगे, दक्षिण मध्य प्रदेश, विदर्भ और मराठवाड़ा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश तथा उत्तरी कर्नाटक में बिजली गिरने और आंधी के साथ बारिश का क़हर देखने को मिलेगा। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में 15-16 मार्च को तेज रफ़्तार हवाओं के साथ ओलावृष्टि की भी उम्मीद है।
बात विज्ञान की
ठण्ड के इस मौसम में भारत पहले ही औसत से ज़्यादा तापमान का सामना करने का गवाह रहा है, 1901 के बाद से दिसंबर और फरवरी सबसे ज़्यादा गर्म रहा है। कई रिसर्च और अध्ययन ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ती हुई गर्मी में इज़ाफ़े से खबरदार कर रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने का सीधा सम्बन्ध क्लाइमेट सिस्टम में होने वाले कई बड़े बदलावों से है। इसमें आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि, मरीन हीटवेव, भारी वर्षा और कुछ क्षेत्रों में कृषि और पारिस्थितिक सूखे में बढ़ोत्तरी शामिल हैं; तीव्र उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के अनुपात में वृद्धि; और आर्कटिक समुद्री बर्फ, बर्फ की चादर और पर्माफ्रॉस्ट में कमी।
मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक़ बढ़ते तापमान के चलते बहाव की गतिविधियों में वृद्धि होती है, जिसके चलते मौसम की शुरुआत में प्री-मॉनसून बारिश को आमंत्रण मिलता है। ‘भारतीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का आकलन’, रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में प्री-मानसून सीज़न हीटवेव आवृत्ति, अवधि, तीव्रता और एरियल कवरेज इक्कीसवीं सदी के दौरान काफी हद तक बढ़ने का अनुमान है। प्री-मानसून तापमान हाइएस्ट वार्मिंग ट्रेंड दर्शाता है जो मानसून के बाद और मानसून के मौसम की पैरवी करता है। विशिष्ट आर्द्रता में उल्लेखनीय वृद्धि प्री-मानसून सीजन के दौरान किया गया मूल्यांकन सरफेस वार्मिंग का सबसे बड़ा ट्रेंड है। पिछले अध्ययनों में भी भारतीय क्षेत्र के ऊपर वातावरण में नमी में बढ़ोत्तरी के तापमान वृद्धि से सम्बंधित होने की जानकारी दी गई थी। क्षेत्रीय वार्मिंग के हालात के तहत ये बढ़ी हुई जलवाष्प मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन पर महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रतिक्रिया हो सकती है ,क्योंकि जल वाष्प का प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव में सबसे महत्वपूर्ण योगदान है।
विशेषज्ञों की राय
“ये मौसमी सरगर्मियां सीजन के प्रारम्भ में ही शुरू हो गई हैं। आमतौर पर प्री-मानसून गतिविधियां मार्च के दूसरे पखवाड़े में शुरू हो जाती हैं। इसके अलावा, इस मौसम के दौरान बारिश की गतिविधियां सुबह जल्दी या दोपहर बाद तक ही सीमित होती हैं, लेकिन इस तरह के लंबे समय का दौर दुर्लभ हैं। असामान्य तापमान से देश के कई हिस्सों में इस मौसम में मल्टिपल वेदर सिस्टम देखने को मिलता है। पहले से ही एक ट्रफ है जो मध्य भागों से होकर गुजर रही है। यह एक पश्चिमी विक्षोभ के साथ और अधिक चिह्नित होगा जो 12 मार्च तक इस क्षेत्र को प्रभावित करना शुरू कर देगा। यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि ग्लोबल वार्मिंग से किस तरह के जलवायु प्रभावों की उम्मीद की जा सकती है। जैसा कि औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि जारी है, हम लगातार अंतराल पर बढ़ती गर्मी के स्ट्रेस के कारण इस तरह की मौसमी सरगर्मियों को और ज़्यादा देखेंगे,” ये कहना है मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर के उपाध्यक्ष महेश पलावत का।
एक अन्य हालिया अध्ययन के मुताबिक़, प्री-मॉनसून सीज़न के दौरान महत्वपूर्ण वर्षा-वाहक प्रणालियां मेसोस्केल कन्वेक्टिव सिस्टम, गरज के साथ तूफानी बारिश और ट्रॉपिकल साइक्लोन हैं। बारिश की बेतहाशा घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि मुख्य रूप से एशिया में वैश्विक जलवायु परिवर्तन से प्रभावित है। वातावरण में मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोत्तरी, खासकर CO2 की दर का दोगुना बढ़ जाना, वैश्विक तापमान में औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाने से संबंधित है। ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि से प्री-मानसून सीज़न में दिन और रात में बेतहाशा गर्मी और उमस के साथ असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। प्री मानसून सीज़न के दौरान बादल ऊपर की तरफ फैलते हैं तथा ज्यादातर दोपहर बाद और शाम के शुरुआती घंटों के दौरान ऊपर आते हैं। वे हाई टेम्प्रेचर, नमी के निचले स्तर, अस्थिर परिस्थितियों आदि जैसे हालात से उत्पन्न होते हैं, जिसके नतीजे में बेहद ऊंचाई तक बादलों का निर्माण होता है। प्री-मानसून बारिशों के साथ कभी-कभी तेज़ रफ़्तार हवाएं चलती हैं जिसके साथ धूल भरी आँधी आती है और वे प्रकृति में पैचिंग करते हैं।
“क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग को भारी बारिश, तूफ़ान और हीटवेव के साथ एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं की आवृत्ति, अवधि और तीव्रता पर महत्वपूर्ण प्रभाव के लिए जाना जाता है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से गर्म तापमान अधिक वाष्पीकरण बढ़ सकता है, जिससे हवा में ज़्यादा नमी और भारी बारिश की घटनाएं बढ़ सकती हैं। इसके अलावा, क्लाइमेट चेंज माहौल में बढ़ी हुई ऊर्जा और नमी के ज़रिये लोकल वेदर सिस्टम को बनाने में योगदान देता है, जैसे कि तूफ़ान और ओले गिरना। वेदर सिस्टम महत्वपूर्ण फसलों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिसके नतीजे में किसानों को आर्थिक नुकसान और कम्युनिटी के लिए भोजन की किल्लत हो सकती है। ध्यान देने योग्य तथ्य ये है कि एकमात्र मौसम की घटनाओं को सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, जैसा कि वैज्ञानिक धरती के गर्म होने पर इसकी उम्मीद कर रहे थे, ये लगातार और गंभीर मौसमी सरगर्मियों का समूचा पैटर्न उसी के अनुरूप है। इसलिए, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और ग्लोबल वार्मिंग तथा इससे संबंधित नतीजों को सीमित करने के लिए हमारे कार्बन फुटप्रिंट को घटाने की आवश्यकता है। इसके अंतर्गत कृषि में स्थायी तरीकों को लागू करना, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश करना शामिल है।” ये कहना है अंजल प्रकाश, रिसर्च डाइरेक्टर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और आईपीसीसी लेखक का।
चलते चलते
हाल के 30 वर्षों की अवधि में प्री-मानसून सीज़न के दौरान 1986-2015 में अधिकतम वार्मिंग ट्रेंड देखा गया। बहुत मुमकिन है कि 1980 के दशक के बाद से भारत में सतह के समीप एयर स्पेसिफ़िक ह्यूमिडिटी में औसत वार्षिक और मौसमी वृद्धि हुई है। प्री-मानसून सीज़न के दौरान नापी गई स्पेसिफिक ह्यूमिडिटी में उल्लेखनीय वृद्धि की प्रवृत्ति इस सीज़न के लिए पाए जाने वाले सबसे बड़े सतह वार्मिंग ट्रेंड के अनुरूप है। भारत में ऑब्ज़र्व किये गए सतही हवा के तापमान में परिवर्तन मानव जनित बल के लिए जिम्मेदार हैं। यक़ीनन पोस्ट मानसून का अधिकतम तापमान और प्री-मॉनसून के दौरान न्यूनतम तापमान तथा मॉनसून सीज़न मानव जनित प्रभावों से प्रेरित जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है।