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‘मेडिसिन की पढाई में शामिल हो जलवायु परिवर्तन’

Posted on February 12, 2021

भारत में स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र से जुड़े 3000 से ज्‍यादा पेशेवर लोगों को शामिल कर जलवायु परिवर्तन पर किये गये अब तक के सबसे बड़े सर्वे से जाहिर हुआ है कि देश के स्‍वास्‍थ्‍य सेक्‍टर को भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये कदम उठाने और उनकी पैरवी करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिये।

क्लाइमेट ट्रेंड्स, हेल्दी एनर्जी इनीशिएटिव और हेल्थ केयर विदाउट हार्म द्वारा शुक्रवार को आयोजित वेबिनार में भारत में किए गए अपनी तरह के इस पहले सर्वे के निष्कर्षों पर चर्चा की गई।

हेल्‍दी एनर्जी इनीशियेटिव इंडिया की प्रतिनिधि श्वेता नारायण ने सर्वे की रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि सर्वे से साफ तौर पर जाहिर होता है कि स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों के सभी वर्गों में जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता की दर 93 प्रतिशत है। सर्वे में शामिल 72.9% उत्‍तरदाताओं ने जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोगों के प्रकोप के बीच में संबंधों को सही माना। सर्वे में शामिल 85 प्रतिशत से ज्‍यादा उत्‍तरदाताओं का मानना है कि स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन की समस्‍या से निपटने और खुद अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने की जिम्‍मेदारी निभानी चाहिये। स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों ने भविष्‍य में जलवायु परिवर्तन से निपटने के काम में सहभागिता करने के प्रति गहरी दिलचस्‍पी जाहिर की।

यह सर्वे अगस्‍त 2020 से दिसम्‍बर 2020 के बीच किया गया। इसमें डॉक्‍टर, नर्स, पैरामेडिकल स्‍टाफ, अस्‍पताल के प्रशासकों, आशा कार्यकर्ताओं, एनजीओ के स्‍वास्‍थ्‍य सम्‍बन्‍धी स्‍टाफकर्मी तथा स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के छात्रों समेत 3062 स्‍वास्‍थ्‍य पेशेवरों को शामिल किया गया। ये स्‍वास्‍थ्‍य पेशेवर देश के विभिन्‍न हिस्‍सों का प्रतिनिधित्‍व करने वाले छह राज्‍यों के हैं। इनमें उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तरी क्षेत्र), बिहार (पूर्वी क्षेत्र), मेघालय (पूर्वोत्‍तर क्षेत्र), छत्‍तीसगढ़ (मध्‍य क्षेत्र), महाराष्‍ट्र (पश्चिमी क्षेत्र) और कर्नाटक (दक्षिणी क्षेत्र) शामिल हैं।

इस सर्वे के दौरान स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों के सात समूहों से बात की गयी। उनमें से डॉक्‍टरों की बिरादरी जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे ज्‍यादा (97.5 प्रतिशत) जागरूक पायी गयी। उसके बाद मेडिकल के छात्र (94.8 प्रतिशत), अस्‍पताल प्रशासन स्‍टाफ (94.3 प्रतिशत), आशा कार्यकर्ता (92.5 प्रतिशत) की बारी आती है। नर्स सबसे आखिरी पायदान पर रहीं जिनमें जलवायु परिवर्तन, उसके कारणों, प्रभावों और इंसान की सेहत से उसके सम्‍बन्‍धों के बारे में सबसे कम (89.6 प्रतिशत) जागरूकता पायी गयी। जाहिर है कि आशा कार्यकर्ता विभिन्‍न सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य योजनाओं को अंतिम छोर तक पहुंचाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, लिहाजा उन्‍हें योजनाओं की ज्‍यादा जानकारी होती है। यही कारण है कि वे जलवायु प्रदूषण के कारण स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में नर्स के मुकाबले ज्‍यादा जागरूक हैं।

लंग केयर फाउंडेशन के संस्थापक ट्रस्टी प्रोफेसर डॉक्टर अरविंद कुमार ने कहा “इस अध्ययन के निष्कर्षों से साफ इशारा मिलता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े अग्रणी पेशेवर लोग यह चाहते हैं कि यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से निपटने की कार्यवाही और उसकी पैरोकारी करने के मामले में आगे आकर केंद्रीय भूमिका निभाए। भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल कर बिजली की खपत में कमी  लाने के लिए प्रदूषण मुक्त प्रौद्योगिकी अपनाकर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा सकता है।’’

उन्‍होंने कहा ‘‘जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण को लेकर स्‍वास्‍थ्‍य बिरादरी में चर्चा धीरे-धीरे जोर पकड़ रही है। आप किसी व्यक्ति के व्‍यवहार को तब तक नहीं बदल सकते, जब तक आप उस बदलाव के न होने पर उत्पन्न होने वाले खतरे के बारे में उसे नहीं बताते। हमने वायु प्रदूषण को सेहत से जुड़ा एक मुद्दा बनाया है। जलवायु परिवर्तन दरअसल ज्यादा बड़ा मसला है लेकिन इस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना दिया जाना चाहिए था।’’

उन्‍होंने उत्‍तराखण्‍ड के चमोली जिले में पिछले रविवार को आयी प्राकृतिक आपदा का जिक्र करते हुए कहा कि ‘‘उत्तराखंड में हुई घटना विशेष रुप से जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई है। आने वाले वर्षों में भी ऐसी घटनाएं होती रहेंगी क्योंकि हमने पूर्व में हुए ऐसी घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया है।’’

प्रोफेसर कुमार ने कहा ‘‘इस अध्ययन का हिस्सा बनने के दौरान मुझे मालूम हुआ कि स्वास्थ्य बिरादरी में जागरूकता ज्यादा है लेकिन अगर हम गहराई में जाकर लोगों से पूछें कि क्या वे वाकई जलवायु परिवर्तन की तीव्रता के बारे में जानते हैं, तो मुझे नहीं लगता कि आपको सही जवाब मिल पायेगा, लेकिन मेरा मानना है कि यह एक गम्‍भीर मसला है और हम स्वास्थ्य कर्मियों को आगे आकर काम करना होगा।’’

उन्‍होंने कहा ‘‘हम स्‍वास्‍थ्‍य प्रोफेशनल लोगों को एक्‍शन प्‍लान में सबसे आगे आकर काम करना होगा। सबसे बड़ा काम सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाना है और लोगों के व्‍यवहार में बदलाव लाना है। उतना ही चुनौतीपूर्ण कार्य यह भी है कि उन नीतिगत बदलावों को जमीन पर उतारा जाए। मेरा मानना है कि हम सभी को अपने कीमती समय में से कुछ वक्त निकालकर नीति निर्धारण प्रक्रिया में भी शामिल होना होगा।’’

सर्वे के दौरान 81 प्रतिशत से ज्यादा उत्तरदाताओं ने यह माना कि वनों का कटान, जीवाश्म ईंधन जलाया जाना, कचरा उत्पन्न होना, औद्योगिक इकाइयों से प्रदूषणकारी तत्वों का निकलना और आबादी का बढ़ना ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के प्रमुख कारण हैं, जिनकी वजह से बहुत तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। जलवायु परिवर्तन को लेकर स्वास्थ्य पेशेवरों के बीच जागरूकता का स्तर यह जाहिर करता है कि उनमें जलवायु परिवर्तन के कारणों को लेकर पूर्व में किए गए ज्यादातर अध्ययनों में जाहिर अनुमान के मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर समझ है। लगभग 74% उत्तरदाताओं का यह भी मानना है कि जनस्वास्थ्य से जुड़ा समुदाय अब जलवायु संवेदी बीमारियों के बढ़ते बोझ का सामना कर रहा है। इसका स्वास्थ्य पेशेवरों तथा स्वास्थ्य से जुड़े मूलभूत ढांचे दोनों पर ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ रहा है। यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जिसमें स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े लोगों की जलवायु परिवर्तन को लेकर जानकारी, सोच, रवैया और क्रियाकलापों को समझने की कोशिश की गई है। यह अध्ययन डाटा एजेंसी मोर्सल इंडिया के सहयोग से हेल्दी एनर्जी इनीशिएटिव द्वारा कराया गया है।

यह सर्वे वर्ष 2020 के उत्तरार्द्ध में कराया गया, जब देश और दुनिया कोविड-19 महामारी से जूझ रही थी। इस सर्वे से यह जाहिर होता है कि उत्तरदाताओं में से ज्यादातर संख्या ऐसे लोगों की है जो यह नहीं मानते कि महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त बंदोबस्त किए गए थे। यहां तक कि वे यह भी नहीं मानते कि साथ ही देश का स्वास्थ्य संबंधी मूलभूत ढांचा भविष्य में आने वाली ऐसी महामारी के लिए तैयार है। कोविड-19 महामारी गुजरने के बाद उसके कारण हुई क्षतिपूर्ति की योजना की प्राथमिकताओं के बारे में पूछे गए सवाल पर 83.4 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने यह इशारा दिया कि इस क्षतिपूर्ति योजना में आम नागरिकों की सेहत को तरजीह देने वाली गतिविधियों पर जोर दिया जाना चाहिए। वहीं 82.8 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि वातावरण के संरक्षण और सुरक्षा पर केंद्रित गतिविधियों को सख्ती से लागू किया जाना महत्वपूर्ण है।

मेडिकल स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की अध्यक्ष पूर्वा प्रभा पाटिल ने कहा “सर्वे के निष्कर्ष साफ तौर पर बताते हैं कि स्वास्थ्य पेशेवर लोग और चिकित्सा क्षेत्र अब पहले से कहीं ज्यादा इस बात के इच्छुक हैं कि उन्‍हें जलवायु परिवर्तन से मुकाबले और समुदायों के संरक्षण के काम में शामिल किया जाए। सर्वे से उन खामियों का भी पता चला जो एक समुदाय के तौर पर हमारी जानकारी में बसी हुई हैं और अब हम उन्हें दूर करने के लिए संकल्पबद्ध हैं।”

उन्‍होंने कहा ‘‘यह अध्‍ययन जलवायु परिवर्तन को लेकर न सिर्फ हेल्थ प्रोफेशनल्स के ज्ञान को टटोलता है बल्कि इस समस्या के निदान के लिए हमारे कर्तव्‍य को भी याद दिलाता है। लगभग 86.7 प्रतिशत स्वास्थ्य पेशेवरों का मानना है कि उन्हें जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियों के निर्माण में शामिल किया जाना चाहिए। यह बहुत बड़ी संख्या है। एक बहुत दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस मसले को मेडिकल पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने पर बड़ी संख्या में उत्तरदाता सहमत हैं। हम जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बारे में जो भी पढ़ रहे हैं वह मौजूदा स्थिति के मुकाबले बहुत थोड़ा है। मौजूदा पाठ्यक्रम का अपग्रेडेशन बहुत जरूरी है।’’

वायु प्रदूषण को अक्सर दिल्ली से संबंधित समस्या समझा जाता है लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि इस सर्वे में साफ तौर पर जाहिर हुआ है कि जहरीली हवा के कारण सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में देशभर के स्वास्थ्य कर्मी जानते और समझते हैं। सर्वे के दायरे में लिए गए 88.7% उत्तरदाताओं का मानना है कि वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारियों का सीधा असर स्वास्थ्य क्षेत्र पर पड़ेगा। वह इसे गर्मी और सर्दी से जुड़ी बीमारियों, संचारी तथा जल जनित रोगों, संक्रामक रोगों, मानसिक रोगों तथा कुपोषण के सबसे बड़े खतरे के तौर पर देखते हैं। स्वास्थ्य कर्मियों में से 68.9% कर्मियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य क्षेत्र पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वहीं, 74% उत्तरदाताओं का मानना है कि आबादी पर जलवायु संबंधी बीमारियों का बोझ बढ़ रहा है।

जहां एक तरफ सर्वे में यह पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर स्वास्थ्य कर्मियों के बीच काफी जागरूकता है। वहीं, उनमें से जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों के मुद्दे को जनता के बीच उठाने वालों की तादाद ज्यादा नहीं है। उत्तरदाताओं का यह मानना था कि स्वास्थ्य संबंधी तंत्र को जलवायु के लिहाज से लचीला बनाने के लिए अभी और काम करने की जरूरत है और स्वास्थ्य पेशेवरों को जलवायु परिवर्तन के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने के लिए पर्याप्त जानकारी से लैस किया जाना चाहिए। सर्वे में हिस्सा लेने वाले 72.8% लोग इस बात पर सहमत दिखे कि जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर पढ़ने वाले उसके प्रभावों को भारत में चिकित्सा पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना समय की मांग है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में सेंटर फॉर एनवायरमेंटल हेल्थ की उपनिदेशक डॉक्टर पूर्णिमा प्रभाकरण ने कहा “जलवायु परिवर्तन सेहत से जुड़ा मसला है और सर्वे से यह साफ जाहिर हो गया है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूलन तथा जोखिम को कम करने वाली पद्धतियों को अपनाने तथा जलवायु के लिहाज से लचीलापन अख्तियार करने के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवर लोगों को साथ लाने का यह बेहतरीन मौका है। सरकार को पूर्व चेतावनी प्रणालियां लागू करनी चाहिए ताकि लोगों को जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाली चरम मौसमी स्थितियों और बीमारियों के बारे में पहले से ही जानकारी मिल सके। साथ ही अधिक मजबूत अंतर विभागीय समन्वय, श्रम शक्ति तथा औषधियों की पर्याप्त आपूर्ति उपलब्ध कराने में मदद मिले और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से मुकाबले के लिए जलवायु के लिहाज से लचीले स्वास्थ्य संबंधी मूलभूत ढांचे के गठन में तेजी लाई जा सके।”

उन्‍होंने कहा कि यह अध्ययन ऐसे समय किया गया है जब स्‍वास्‍थ्‍य का क्षेत्र केंद्रीय भूमिका में है। कोविड-19 महामारी और जलवायु परिवर्तन रूपी महामारी के बीच में संबंधों को इस अध्‍ययन में बहुत बेहतर तरीके से दिखाया गया है। यह देखकर अच्छा लगा कि स्वास्थ्य पेशेवर लोगों में जलवायु परिवर्तन को लेकर इस हद तक जागरूकता है। पहले तंबाकू को फेफड़े के कैंसर का कारण माना जाता था लेकिन अब जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से भी यह कैंसर हो रहा है। जाहिर है कि मेडिकल पाठ्यक्रम में वक्त के हिसाब से बदलाव किए जाने की जरूरत है।

इस अध्ययन में स्वास्थ्य पेशेवरों की क्षमता के प्रभावशाली निर्माण की सिफारिशें की गई हैं। साथ ही विविध रास्तों से सूचनाएं उपलब्ध कराने की जरूरत भी बताई गई है, जिनमें जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसमें यह भी सिफारिश की गई है कि जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले उसके प्रभावों को स्वास्थ्य से जुड़े सभी पेशेवर लोगों के पाठ्यक्रम में एक विषय के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य पेशेवरों को जलवायु संबंधी संधियों के रूप में हुए अंतरराष्ट्रीय समझौतों, खास तौर पर पेरिस एग्रीमेंट के बारे में जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। साथ ही स्वास्थ्यकर्मियों को जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य को लेकर बनाए गए राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय कार्य योजनाओं के बारे में विवरण को आसान भाषा में उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन में डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक हेल्थ के निदेशक डॉ मारिया नीरा ने वेबिनार में कहा “कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब वायु प्रदूषण के कारण स्‍वास्‍थ्‍य को हो रहे नुकसान की खबरें  मीडिया में न दिखती हों। वर्ष 2018 में 87 लाख लोगों की मौत जीवाश्म ईंधन जलाने के कारण पैदा होने वाले धुएं की वजह से हुईं। अगर हम पेरिस एग्रीमेंट को लागू करते हैं तभी हम जीवन को सुरक्षित कर सकते हैं। समुदायों को जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी आवाज उठानी ही होगी। हम देख रहे हैं कि अगले कुछ महीनों बाद आयोजित होने वाली सीओपी26 में जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण के कारण होने वाले व्‍यापक नुकसान के सवाल बेहद अहम होंगे। एक बहुत बड़ा संदेश यह है कि 70 लाख असामयिक मौतें जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण से जुड़ी हुई है।

उन्‍होंने कहा ‘‘हम जिंदगी बचाने की बात कर रहे हैं। हमें नीति निर्धारकों के सामने यह बात स्पष्ट करनी होगी कि अगर आप इस समझौते की इस नीति को इस हद तक लागू करेंगे तभी आप इतनी जानें बचा पाएंगे। इससे कंधे पर मौजूद जिम्मेदारी की तरफ साफ इशारा किया जा सकता है। अगर हम यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे कि यह आपकी जिंदगी और आपकी आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए जरूरी है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बहुत मजबूत नीतियां बनानी होंगी। स्वास्थ्य बिरादरी को बहुत मजबूत बनाने की जरूरत है। स्वास्थ्य समुदाय से जुड़े हर व्यक्ति को इस मुद्दे पर अपनी समझ को और बेहतर बनाना चाहिए।’’

इंस्टिट्यूट ऑफ चेस्ट सर्जरी में चेस्ट सर्जरी नर्स नेहा तिवारी ने कहा “एक स्वास्थ्य पेशेवर कर्मी होने के नाते समग्र तरीके से उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवा देना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है। जहां तक जलवायु परिवर्तन का सवाल है तो इसका मतलब यह है कि हमें इसके बारे में उपलब्ध वैज्ञानिक जानकारी को कार्यों में तब्दील करना होगा, ताकि जन स्वास्थ्य का संरक्षण हो सके। स्थानीय स्वास्थ्य तथा पर्यावरणीय नीतियों के निर्माण में स्वास्थ्य क्षेत्र को भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन में कमी लाने तथा उसके प्रति सततता लाने के सिलसिले में बनाई जाने वाली नीतियां जन स्वास्थ्य की सुरक्षा  के लिए उपयुक्त तरीके से तैयार की जा सकें।

उन्‍होंने कहा ‘‘मैंने 28 साल की एक लड़की को फेफड़े का कैंसर होते देखा है, वह भी प्रदूषण की वजह से। मेरा मानना है कि वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन एक विध्‍वंसकारी परिणाम को जन्म दे रहे हैं। इसे रोका जाना चाहिए, वरना भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। अब स्वास्थ्य कर्मियों को आगे आकर काम करना होगा। पूर्व में भी ऐसा कई बार देखा गया है कि स्वास्थ्य से जुड़े हुए मामलों में सेहत से सम्‍बन्धित क्षेत्र के लोगों ने ही अगुवाई की है। मेरा मानना है कि हमें तीन मोर्चों पर काम करना होगा। पहला, हमें खुद को संभालना होगा, दूसरा एडवोकेसी और तीसरा नीतियों पर प्रभाव डालना। जरूरी यह है कि सबसे पहले हम अपने घर से शुरुआत करें।

वेबिनार का संचालन कर रही क्‍लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि इस सर्वे ने जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर स्‍वास्‍थ्‍य पेशेवरों की जानकारी को न सिर्फ टटोला है बल्कि भविष्‍य में उनके कर्तव्‍य के बढ़े हुए पैमाने की तरफ भी इशारा किया है। इससे नीति निर्धारकों के पास भी यह संदेश जाएगा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की मुहिम में स्‍वास्‍थ्‍य बिरादरी को साथ लिये बगैर बात नहीं बनेगी।

अध्ययन के बारे में : यह सर्वे अगस्‍त 2020 से दिसम्‍बर 2020 के बीच किया गया। इसमें डॉक्‍टर, नर्स, पैरामेडिकल स्‍टाफ, अस्‍पताल के प्रशासकों, आशा कार्यकर्ताओं, एनजीओ के स्‍वास्‍थ्‍य सम्‍बन्‍धी स्‍टाफकर्मी तथा स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के छात्रों समेत 3062 स्‍वास्‍थ्‍य पेशेवरों को शामिल किया गया। ये स्‍वास्‍थ्‍य पेशेवर देश के विभिन्‍न हिस्‍सों का प्रतिनिधित्‍व करने वाले छह राज्‍यों के हैं। इनमें उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तरी क्षेत्र), बिहार (पूर्वी क्षेत्र), मेघालय (पूर्वोत्‍तर क्षेत्र), छत्‍तीसगढ़ (मध्‍य क्षेत्र), महाराष्‍ट्र (पश्चिमी क्षेत्र) और कर्नाटक (दक्षिणी क्षेत्र) शामिल हैं। सर्वे के लिये इसके दायरे में शामिल किये गये लोगों को प्रश्‍नावली पेश करने का काम मोर्सल इंडिया ने किया। इस सर्वे का मुख्‍य उद्देश्‍य इस बात को समझना था कि भारत में चिकित्‍सा एवं जनस्‍वास्‍थ्‍य से जुड़ी बिरादरी जलवायु परिवर्तन को कैसे देखती है और उसे उनके सम्‍भावित समाधानों और न्‍यूनीकरण की योजनाओं के साथ कैसे जोड़ती है।

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